दरिया–ए–दिल

 

212    212    212    212
 
चांदनी रात मुझको लुभाती रही
चांद शर्माया मैं मुस्कुराती रही
 
कल जो मेरा था वो आज उसका हुआ
ज़िंदगी मेरा सब कुछ चुराती रही
 
जो नसीबों से मोहलत मिली उम्र की
करके वादा ख़िलाफ़ी गँवाती रही

आँख मेरी थी आँसू भी मेरे बहे 
अपनी उंगली से उनको सुखाती रही

ज़िंदगी इम्तिहानों का घर हो गया 
ज़िंदगानी मुझे आज़माती रही
 
वो थी आगे, था पीछे कोई और ही
मौत जीवन को ऐसे बुलाती रही
 
जो न अपना था उसको भी अपना समझ
बोझ ‘देवी’ क्यों जाने उठाती रही
 

<< पीछे : 101. क्या ये ज़िंदगी कोई ख़्वाब… आगे : 103. वहाँ कुछ किसी का सलामत नहीं… >>

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