अपने भीतर का डर 

15-02-2025

अपने भीतर का डर 

देवी नागरानी (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मन की उड़ान आसमान को छूने की आरज़ू रखते हुए आशाओं के पंख लगा कर अपने नीचे की ज़मीन से जब कुछ ऊपर उठने लगती है तो लगता है बस अभी कामयाबी के शिखर पर पहुँचकर अपनी मनचाही आशा के परचम फहराने का समय आ गया है। पर यह तो आँख में समाया सपना है, हक़ीक़त तो कुछ और है। 

अचानक धनीराम जैसे हड़बड़ाकर अपनी आराम कुर्सी पर से उछलते हुए उठा, टटोलते हुए आगे बढ़कर रसोई घर की लाइट जलाई और अपने शरीर के बोझ को अपनी कमज़ोर टाँगों पर ढोकर पानी के लिए मटके के पास पहुँचा तो अचानक ही हाथ में थमा हुआ गिलास हाथों से छूट कर ज़मीन पर खनकेदार आवाज़ से लुढ़कता हुआ एक स्थान पर थम गया। 

और धनीराम जैसे अपने ही पाँव पर खड़ा न होने के एवज़, लड़खड़ाते हुए पानी की टंकी के पास गिरने को था पर टंकी के सहारे ख़ुद को सँभाल लिया। गर ऐसा न होता, तो फिर न जाने क्या होता? बस इसी सोच में उसने आँखें बंद करते हुए दो-तीन गहरे स्वास लिए और ख़ुद को सांत्वना दी, तब जाकर उसने जाना कि वह तो एक छोटा सा चूहा था जो उसके पाँव को छू कर भाग निकला। 

वह एक फीकी मुस्कान के साथ वह धीरे से बड़बड़ाया। ‘अरे नादान दिन-दहाड़े छोटे से चूहे के छुहाव से धैर्य हार बैठा। फिर उड़ते परिंदों को कैसे पराजित करेगा? कैसे अपने सपनों के शिखर पर परचम फहराएगा? हिम्मत रख धनीराम, क़दम फूँक-फूँक कर आगे बढ़, ज़मीन पर ही अपने पाँव गाड़ सकते हो तो गाड़ लो, बेपर सोच को लगाम देकर आगे बढ़ो। 

और उसने झुककर ज़मीन पर गिरे हुए गिलास को उठाया, नल खोल कर उसे धोया और थोड़ा पानी भर कर, वहीं खड़े-खड़े पीते हुए अपनी प्यास को राहत पहुँचाई। फिर दो क़दम आगे चलकर रसोई घर की बत्ती बुझाई और बरामदे में रखी अपनी आराम कुर्सी पर आ बैठा। 

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वह आज भी अकेला है, तब भी था जब वह थी। पर अब उसके न रहने पर तन्हाई उसे इस क़दर काटने लगी कि एक ग़ैर आहट उसके दिल को धौंकिनी की रफ़्तार बख़्श देती। धनीराम अपने नाकाम जीवन की राहों से गुज़रते-गुज़रते वाक़ई में बहुत थक गया था। जानता था, राहों में रोड़े आते हैं, उन्हें हटाए बिना भी कभी रास्ते निकल आते हैं। हारना जीवन का अंत नहीं, उठकर फिर से चलने की, आगे बढ़ने की प्रेरणा ही मार्गदर्शक बन जाती है। 

बहुत पहले कहीं कुछ लिखा हुआ पढ़ा था जो अब तक दिल की दीवारों पर अपनी छाप छोड़े हुए है। उन यादों से मैं ख़ुद भी आज तक नजात नहीं पा सकी हूँ। लिखा हुआ जो पढ़ा वह था:

“केवल किताबी क़िस्से ही न पढ़िए 
ज़िन्दगी को भी पढ़ो, 
लोगों को भी पढ़ो
समाज को भी पढ़ो।”

पढ़ने वाला भी एक नक़्क़ाद की तरह होता है, जो हीरे की असली क़ीमत जानते हुए उस पत्थर को तराश कर बेशक़ीमती बनाकर उसे अँगूठी में गड़ने के क़ाबिल बनाता है। 

ऐसा नहीं कि धनीराम क़ीमती चीज़ों का मूल्य नहीं जानता था। वह बख़ूबी जानता था कि पानी में लकीरें खींचने से पानी अलग नहीं होता। कुछ ऐसे ही रिश्ते भी होते हैं, उबाल खाते हैं, छोलियाँ मारते हुए उफान की तरह हद से बाहर अपनी परिधियाँ लाँघ जाते हैं। फिर भी वे ठहराव पाते ही अपनी सीमाओं में सिमट जाते हैं, समा जाते हैं। यही चलन है जो चलता आ रहा है और चलता रहेगा। 

फिर वह क्यों नहीं उसे अपना पाया? क्यों ‘कलंकिनी’ का दाग़ उसके माथे पर धर दिया। वह तो उसका घरवाला था, उसका रखवाला। ऐन समय कैसे वो कायरता की सीमा को लाँघ गया, अपने ही घर की चौखट पर एक लक्ष्मण रेखा खींच ली जिसके इस पार वह ख़ुद था और उस पार वह रही। 

कारण बिल्कुल साफ़ था माधवी के चरित्र पर उसने ‘कलंकिनी’ नाम की एक मोहर लगा दी और उसे चौखट लाँघने से बेदख़ल कर दिया। 

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माधवी रिश्तों को समझती थी, समझते हुए निबाह निर्वाह की सीमाओं में रही, पर अब सब नाते बेमानी हो गए। अपनों ने न अपना कर पराया कर दिया, ग़ैरों ने छला-लूटा। वह कुछ इस तरह से कंगाल हुई कि अपने अस्तित्व की धज्जियाँ भी न समेट पाई। 

परेशानियों को सब्र से झेलने से वे ख़त्म नहीं हो जातीं। जहाँ अपनों ने उसका साथ नहीं दिया, घर के दरवाज़े उस पर बंद कर दिए तब वह जैसे एक जीती जागती चीज़ की तरह, समाज की कुनीतियों के पुरोधा जैसे गिद्धों का निवाला बन गई। उसकी चीख हवाओं में फैल गई, पर उसकी कोई गूँज बहरे कानों तक नहीं पहुँची। सन्नाटे के बीच फड़फड़ाते पंछी की तरह घायल माधुरी अपना फटा हुआ दामन बिना समेटे ही अपने घर की दहलीज़ पर जब आई तो उसके कायर पति धनीराम ने उसे घर की चौखट के भीतर की लकीर छूने न दी। उसकी अपनी इज़्ज़त जैसे समाजवालों की नज़र में उसकी अना बन गई। 

“तू कलंकिनी है, मैं तुझे नहीं अपना सकता,” कहते हुए जब उसने आस-पास के लोगों व् पड़ोसियों के सामने दरवाज़े के दोनों पाट ज़ोर से बंद किए तो माधवी अपनी ही नज़र में इतना गिर गई कि अपना मुँह छुपाने के लिए उसे किसी दीवार की ओट न मिली। अपने ही अस्तित्व में वो कुछ यूँ सिमटने लगी जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही मुँह से निकले हुए रेशम की तारों में ख़ुद को क़ैद कर लेता है। वह जान गई कि मुश्किलों में अपनों का साथ न होने पर परिस्थितियाँ नहीं बदलतीं। उनका सामना किए बिना कोई समाधान नहीं निकलता। बस इरादों की कशमकश में उसने एक अटल इरादे को अंजाम देने की शक्ति अपने भीतर पैदा की, यही कि वह अपनी समस्या का समाधान समाज के बीच रहकर, समाज के प्रतिनिधियों के सामने सीना तान कर पाएगी, जिन्होंने उसे ठुकरा कर उसके चरित्र पर ‘कलंकिनी’ की एक मोहर लगा दी थी। 

उसके चरित्र पर कील की तरह धँसी हुई थी वह मोहर ‘कलंकिनी’ जैसे एक काला दाग़ बन गई। ‘कलंकिनी’ बस यही तो कहा था उसने। सामने एक ही विकल्प था। उसने बाज़ारू औरत बनकर एक ठिकाने पर ठहराव पाने का विकल्प अपने हक़ में किया और इसी चुनाव को बेहतर माना। 

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सियासी मैदान के सियासी माहौल में इन्सान इन्सान को कीड़े मकोड़े की तरह कुचल कर आगे बढ़ जाते हैं। और कुचले हुए किरदार के सीने में एक नहीं अनगिनत सुरंगें क़ब्र की तरह अपना स्थान बना लेती हैं। माधवी भी आगे बढ़ती रही। कालिख एक बार लगे या अनेक बार, कालापन तो अपना दाग़ छोड़ जाता है। गुनाह एक बार हो या दस बार या उससे हज़ार गुना ज़्यादा, सज़ा वही होती है जो एक बार तय होती है। 

जानती थी वह। हर सच से वाक़िफ़ थी, शायद इसी कारण वह भीतर से जैसे लोहा बन गई। उसकी सोच चट्टानों की बुलंदियों को छू रही थी। वह पुरानी कश्तियाँ पीछे जला कर आई थी, इसलिए पीछे मुड़कर देखना बेमतलब सा था। उसने अपनी चुनी हुई राह पर जाने का निर्णय लिया। कुछ ऐसी परिस्थिति माधवी के सामने थी, जिस कारण उसके पास अधिक चुनाव की सम्भावना बाक़ी न बची थी। 

औरत एक बार बंधन से मुक्त हो जाए तो दोबारा फिर से बेड़ियों में जकड़े जाने के पहले सौ बार सोचती है, यही नहीं कभी कहीं कहीं परिस्थितियों के एवज़ चुनाव करने की परिधि भी मिट जाती है। 

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असुरक्षित माहौल से निकलकर सुरक्षित माहौल में रहकर अपनी हिफ़ाज़त करना भी तो देह की ओर एक धर्म है। देह ही तो है जो इच्छा व् अनिच्छा की पूर्ति पाने का माध्यम बन जाती है। न्याय अन्याय के बीच की खाई पाट पाना, अपने साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ सर उठाना कायरता नहीं, बस अपने ऊपर विश्वास होने की कमी है। 

माधवी भी इसी समाज में ऐसे ही प्राणियों के बीच उस कोठे नामक संस्थान में जा बसी, जहाँ जिस्म बेचा और ख़रीदा जाता था। वहीं हर जीती-जागती हस्ती को ‘चीज़’ की तरह तराज़ू में तोला जाता। हर चीज़ की क़ीमत आँकी जाती, क़ीमत चुका कर, समय ख़रीद कर, माल को इस्तेमाल करके ख़रीदार चला जाता। उस क़तार में एक भी ऐसा मर्द न होता जो औरत को ‘चीज़’ न समझकर ख़रीदने की चाह को त्यागकर उसे अपना बना कर उस कोठे के बाहर ले जाता। 

माधवी सम्पूर्ण रूप से हालातों से घिरे हुए भली-भाँति यह जान चुकी थी कि वह और उस जैसी अनेक चलती-फिरती लाशें इन रंग-बिरंगे कोठों पर जो नज़र आती हैं, उनका भुगतान क़ीमत के रूप में लिया और दिया जाता है। वक़्त-बेवक़्त उन नाज़नीनों के दिलों पर दर्द की लकीरें इतनी गहरी हो जाती थीं कि उनके दिलो-दिमाग़ व् तबीयत की कशमकश का असर उनकी अंगड़ाइयों में झलकता हुआ नज़र आता। वे जानती थी कि यह उनकी अपनी जंग लड़ने का कुरुक्षेत्र है, जिसके चारों ओर चक्रव्यूह ही चक्रव्यूह दिखाई देते हैं, जो बाहर से भीतर की ओर खुलते हैं। दोस्त बनकर दुश्मन चारदीवारी में क़दम रखते ही दिलों पर दस्तक देने की कोशिश करते हैं, अपनी ख़्वाहिशों का गला न दबाकर, उन चलती-फिरती लाशों को गिद्ध की तरह मांस नोंच-नोंचकर उन्हें अज़ीयत की सेज पर अपनी हवस की पूर्ति को अंजाम देते हैं। इन संवेदनाओं का कोई इतिहास नहीं होता, न कोई पुराण। वह तो बस अख़बार का वह सड़ा, गला पन्ना होता है जिसपर स्नेह दुलार के छुहाव के बजाय स्वार्थी इंसान, सड़क के आवारा कुत्ते की तरह बस दुत्कार देते हैं। 

इस रिवायत से माधवी अब तक बख़ूबी वाक़िफ़ हो चुकी थी। जहाँ उसने पनाह पाई, वहीं उसकी आज़ादी छीन ली गई। वहाँ तो नारी के नंगे जिस्म को लूटने वालों के लिए औरत सिर्फ़ और सिर्फ़ भोग वस्तु सी बन कर रह जाती है। 
मर्द औरत को परिधियों में बाँधते हुए अपनी मनचाही लक्ष्मण रेखाएँ खींच लेता है। क्या ये लक्ष्मण रेखाएँ खींचने वाले आज के ज़माने के लक्ष्मण हैं? क्या आज के राम ने ऐसे लक्ष्मणों के निर्णय लेने की इस कुनीति के लिए हामी भर दी है? 

अनेक सवाल सर उठाए हुए हैं, जवाब निराधार सामने लटक रहे हैं, जिनकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं।     

पर्दे के पीछे के राज़ पर्दे में ही रहते हैं। कोई नहीं उकेरता और कोई ज़ुर्रत भी नहीं करता जानने की। किसी ने क्या ख़ूब कहा है:

“जिस किनार पर खड़ा हूँ, डूबता हूँ वहीं पर”

वैसे भी जिस बात पर मिट्टी पड़ जाए फिर उसकी तहों में क्या है, कोई जानने की कोशिश नहीं करता। बावजूद इसके दर्द की ख़ामोशी भी रात के सन्नाटों में शोर मचाती है। जो सज़ा कायर धनीराम ने माधुरी को दी, वह दिन ब दिन दुगनी होकर उसके भीतर डर पैदा करती रही। ऐसा एक नहीं अनेक बार हुआ पर गुनाह और माफ़ी घर की चौखट से बँधे हुए थे। ग़लतियों की माइने बदल जाते हैं जब माफ़ी माँगने के बाद भी दोहराई जाती हैं। ऐसे गुनाह की कोई माफ़ी नहीं। कभी-कभी समय पर बात सँभल भी जाती है, कभी बहुत देर हो जाती है, और हाथ से निकल जाने वाला वक़्त वापस नहीं आता। इस बार बात अपनी होकर भी पराई हो गई। न सिर्फ़ उसने माधवी का दिल दुखाया, बल्कि उसका दिल तोड़ा, जिसकी किर्चियाँ अब उसे अपने आसपास ही चुभती नज़र आतीं। 

हर किरदार अपने-अपने चरित्र को साथ लेकर चलता है। माधवी ने अपने हालत से मुक़ाबला करने की ठान अपने भीतर के हर संशय को, हर डर को बाहर निकाल फेंका और अपनी ठानी हुई राह को मंज़िल मानकर अपने क़दम आगे बढ़ाए। पर धनीराम ने उस डर को अपने भीतर पनपने दिया शायद वह जानता था कि ग़लती उसकी ही थी। चाहता तो मर्द बन कर आस-पास के लोगों का सामना करता और घर की इज़्ज़त को गुमराह होने की राह पर न धकेलता। माफ़ न करना भी किसी गुनाह से कम नहीं। वही कलंक उसके भीतर डर बन कर समा गया। 

वह अब तन्हा रह गया था। कारण ख़ुद ही था। जिस टहनी पर खड़ा था ख़ुद उसे काटा। अब तो एक खोखली आहट भी उसे डरा देने के लिए काफ़ी रही। एक चूहे का छुहाव उसे धराशायी करने लगा था। बाहर का डर, बाहर वालों का डर, सामाजिक खोखली व्यवस्था की पहरेदारी करते-करते धनीराम ख़ुद भीतर से खोखला होता रहा। और अब तो हालात यह रही कि चारदीवारी में महफ़ूज़ होते हुए भी उसका दिल धड़क उठता था। हर एक आहट का डर उसके भीतर कुछ यूँ समा गया कि धूप में अपनी परछाईंं देखकर भी वह डर जाता था। 

जिस घर का व् घरवाली का वह रखवाला था, आज वही ख़ुद अपनी परछाईंं से डर रहा हो, इससे बड़ी सज़ा और क्या हो सकती है? 

वो कहते हैं न . . . 

“ज़मीर से बड़ा गवाह कोई नहीं 
दिल से बड़ी अदालत कोई नहीं”

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