दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    22
 
निकला सूरज न था, प्रभात हुई
यह अजब एक वारदात हुई
 
ख़ामुशी ने कहा, सुना मैंने
मौन पत्थर से जब भी बात हुई
 
प्याला सोने का हो या मिट्टी का
क्या कोई उसमें जल की ज़ात हुई
 
ज़िन्दगी है ये बाज़ी शतरंज की
मैं तो जैसे बिछी बिसात हुई
 
मैं तो माहिर थी खेल में फिर भी
ऐसा पासा पड़ा कि मात हुई
 
झूठ पे हो यक़ीं, न हो सच पर
यह भी ‘देवी’ क्या कोई बात हुई

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