दरिया–ए–दिल

 

1212    1122    1212    22
 
जो बात लाई किनारे पे, आस्था की थी
थी मौज मौजों की या वो नाख़ुदा की थी
 
गुमाश्तागी उसे रास आये ऐसा हो न सका
फ़क़ीरी में जो मिली चाह आत्मा की थी
 
वो आए, बैठे बिना उठके चल दिये यूँ ही
कोई बताए सज़ा थी तो, किस ख़ता की थी
 
ठिकाने हमने भी बदले वफ़ा के नाम कई
टिका ये दिल न कहीं, बात बेवफ़ा की थी
 
उदास दिल को ख़ुमारी से भर दिया किसने
वो ख़ुशगवार सी ख़ुशबू, किस हवा की थी
 
मैं खो गया था वहीं रेगज़ार में चलते
मुझे जो राह पे लाई रज़ा ख़ुदा की थी
 
न चाँद में न सितारों में थी कशिश ‘देवी’
फ़िदा करे जो महक दिल को, दिलरुबा की थी

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