दरिया–ए–दिल (रचनाकार - देवी नागरानी)
अपनी बात
अनबुझी प्यास रूह की है ग़ज़ल
ख़ुश्क होंठों की तिश्नगी है ग़ज़ल
मेरी भीगी पलकों के पोर बेज़ुबान है आज भी . . .
मेरे अनकहे अहसास क़लम की नोक से कलाम बनकर भीतर से बाहर आने में प्रयासरत है, जब कि करोना काल के दृश्य अदृश्य के बीच एक नए इतिहास की पहल शुरू हुई है जहाँ इंसान, अपने तमाम नेमतों के बावजूद प्रकृति की ओर से आई पाबंदियों से ख़ुद को आज़ाद न करा पाने की द्वंद्व में धँसता चला जा रहा है।
खुले आकाश के नीचे,
फिर भी कमरों में बंद!
शायद यही रब की रजा रही जो चादर बनकर हमारे सरों को ढाँपती रही। होनी-अनहोनी, बाहर भीतर सरसराहट पैदा करती, सरकती जाती, एक सिहरन का अहसास देकर। अप्रैल 2000 माह से यह क़ुदरत का करिश्मा शुरू होकर, महीना दर महीना, और वक़्त की रफ्ऱतार से आगे पूरा साल संपूर्ण करते 2021 में पदार्पण हुआ। पर हालत वही रहे, वहीं के वहीं।
यही वह समय था जब थके हारे मन में एक ज्योति जलती रही, एक रोशन राह दिखाई देती रही और उसी का प्रतिफ़ल मेरे मन को, मेरी सोच को मेरी समझ को, तमाम इल्म और अक़्ल के साथ सजदे में झुकाता रहा। बस उस मालिक का शुक्र अदा करती रही। मैंं नहीं, समस्त काइनात की इन्सानियत पूरी श्रद्धा व् सबूरी से समय के साथ हमक़दम होकर चलने लगी। यह वह वक़्त है जो आने वाले कल तक हर पीढ़ी को याद रहेगा, जिसमें इंसान, इंसान बनता जा रहा है।
इस दौर में मेरे थमे हुए ग़ज़ल लेखन के पन्नों में आठ साल से क़ैद ये शब्द अब जैसे फड़फड़ाते हुए बाहर साँस लेने आ गए हैं। और मौक़ा पाते ही अपने मुक़ाम की ओर बढ़कर कलाम के रूप में काग़ज़ पर उतरने लगे हैं। कुछ सूफ़ियाना भाव इन में पिरोये हैं, सब वक़्त के देन . . .
नाम तेरा नाम मेरा कर रहा कोई और है
ख़ालीपल जीवन का ‘देवी’ भर रहा कोई और है
यह उमड़ता हुआ दिल का दरिया किनारों को फाँद कर अपनी राह पाने की एक बार फिर कोशिश कर रहा है, उसी आस्था की चौखट पर, जहाँ मेरे दिल के अहसास इस दौर में हर दिल के अहसासों से मिल कर
शब्दों का सैलाब बने हैं।
कविता अन्दर से बाहर की ओर बहने वाला निर्झर झरना है। प्रेम प्रकाश ‘पटाख’ का एक शेर याद आता है:
पूछो ग़ज़ल है क्या ये तो इक ऐसा छंद है,
फूलों की मुट्ठियों में छुपी एक सुगंध है।
इसी अहसास को साथ लिए मेरे प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह—‘चरागे-दिल’ 2007, ‘दिल से दिल तक’ 2008, ‘लौ दर्दे-दिल की’ 2010, ‘सहन-ए-दिल’ 2017 और अब ‘दरिया-ए-दिल’ अपने शब्दों की पदयात्रा करते हुए समय के साथ-साथ एक स्वतंत्र यात्रा तय कर रही है। मैंं यह संग्रह श्री. आर.पी. शर्मा जी को समर्पित करती हूँ, जिनकी आशीष से मैंं इस विधा के प्रांगण में क़दम रख पाई, एक गुरु-शिष्य-की परम्परा को बरक़रार रखती चौखट पर—
कर रहे हैं मिल के रौशन दीप इबादतगाह के
ख़ूब है ‘देवी’ इबादत, उसकी भी और मेरी भी
गति अपनी लय-ताल में सुस्त क़दमों से चल रही है। बढ़ रही है आगे और आगे, अपनी नियति के संविधान के अंतर्गत, बस अदब के कुछ आदाब मुझसे भी इस रस्म को निभाने की उम्मीद करते हैं, उसी दायरे में अपनी गुरु सखी मोना हैदराबादी का धन्यवाद अता करना चाहूँगी, जिन्होंने मेरी ग़ज़लों पर अपनी पारखी नज़र से सींचते हुए इस दीवानगी को नया रंग दिया है।
मैं अयन प्रकाशन के निदेशक श्री संजय जी का तहे दिल से आभार प्रकट करना चाहती हूँ, जिन्होंने वक़्त के दायरे में रहकर इस संग्रह का अक्षरांकन करते हुए इस संग्रह को आपके हाथों में सौंपा है। सदा से स्नेह की पात्र रही हूँ, उसी आशा एवं विश्वास के साथ आपके मन की बात जानने व प्रतिक्रिया पाने की ललक में—
—आपकी अपनी
देवी नागरानी
विषय सूची
- समर्पण
- कुछ शेर
- पुरोवाक्
- जीवनानुभावों की नींव पर शब्दों का शिल्प
- बहता हुआ दरिया-ए-दिल
- शायरी की पुजारन— देवी नागरानी
- ग़ज़ल के आईने में देवी नगरानी
- अपनी बात
- 1. तू ही एक मेरा हबीब है
- 2. रात का पर्दा उठा मेरे ख़ुदा
- 3. इक नया संदेश लाती है सहर
- 4. मुझमें जैसे बसता तू है
- 5. तू ही जाने तेरी मर्ज़ी, या ख़ुदा कुछ और है
- 6. नज़र में नज़ारे ये कैसे अयाँ हैं
- 7. हाँ यक़ीनन सँवर गया कोई
- 8. मन रहा मदहोश मेरा भोर तक
- 9. इंतज़ार उसका किया था भोर तक
- 10. अपनी निगाह में न कभी ख़ुद को तोलिए
- 11. नाम मेरा मिटा दिया तूने
- 12. तुझको ऐ ज़िन्दगी जिया ही नहीं
- 13. रात क्या, दिन है क्या पता ही नहीं
- 14. धीरे धीरे दूरियों से आशना हो जाएगा
- 15. गीता का ज्ञान कहता जो सुन उसको लीजिये
- 16. बंद है जिनके दरीचे, उन घरों से मत डरो
- 17. ग़म की बाहर थी क़तारें और मैं भीतर निहाँ
- 18. ले गया कोई चुरा कर मेरे हिस्से की ख़ुशी
- 19. हर किसी से था उलझता बेसबब
- 20. हार मानी ज़िन्दगी से, यह सरासर ख़ुदकुशी थी
- 21. आँचल है बेटियों का मैक़े का प्यारा आँगन
- 22. आपसे ज़्यादा नहीं तो आपसे कुछ कम नहीं
- 23. काश दिल से ये दिल मिले होते
- 24. मत दिलाओ याद फिर उस रात की
- 25. तमाम उम्र थे भटके सुकून पाने में
- 26. रात को दिन का इंतज़ार रहा
- 27. दिल का क्या है, काँच की मानिंद बिखरता जाएगा
- 28. है हर पीढ़ी का अपना अपना बस इक मरहला यारो
- 29. क्या ही दिन थे क्या घराने अब तो बस यादें हैं बाक़ी
- 30. चुपके से कह रहा है ख़ामोशियों का मौसम
- 31. फिर कौन सी ख़ुश्बू से मिरा महका चमन है
- 32. चलते चलते ही शाम हो जाए
- 33. होती बेबस है ग़रीबी क्या करें
- 34. निकला सूरज न था, प्रभात हुई
- 35. क़हर बरपा कर रही हैं बिजलियाँ कल रात से
- 36 हर हसीं चेहरा तो गुलाब नहीं
- 37. दिन बुरे हैं मगर ख़राब नहीं
- 38. अपनी मुट्ठी से निकलकर वो पराई हो गई
- 39. देख कर रोज़ अख़बार की सुर्ख़ियाँ
- 40. दूर जब रात भर तू था मुझसे
- 41. जीने मरने के वो मंजर एक जैसे हो गए
- 42. ‘हम हैं भारत के' बताकर एक फिर से हो गए
- 43. मेरा तारूफ़ है क्या मैं जानता ही न
- 44. यह राज़ क्या है जान ही पाया नहीं कभी
- 45. मेरी हर बात का बुरा माना
- 46. दिल को ऐसा ख़ुमार दे या रब
- 47. मेरा घरबार है अज़ीज़ मुझे
- 48. तेरा इकरार है अज़ीज़ मुझे
- 49. पार टूटी हुई कश्ती को उतरते देखा
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-