दरिया–ए–दिल

 

2122    1122    1122    22
 
पार टूटी हुई कश्ती को उतरते देखा
हमने दरिया के किनारों को भटकते देखा
 
झूम कर अक्स मेरा रक़्स लगा करने तब
ख़ुद को आईने में जब जब भी सँवरते देखा
 
वो गरज कर भी बरस पाए न थे जो बादल
उनको घनघोर घटाओं से उलझते देखा
 
पेड़ बरगद का जो आँगन में खड़ा था उसको 
काटकर, ईंट के दीवार को उठते देखा 
 
अनकहे राज़ जो अरसे से दबे थे दिल में
रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें अश्कों में मचलते देखा
 
जिन चरागों से मिला हमको उजाला हर शब
रात भर ‘देवी’ उन्हें हम ने सिसकते देखा

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