दरिया–ए–दिल

 
2122     2122     212
 
इक नया संदेश लाती है सहर
पाठ जीवन का पढ़ाती है सहर
 
कुछ नए औ’ कुछ पुराने गीतों को
तालसुर में गुनगुनाती है सहर
 
बेवजह अब सोचना तू छोड़ दे
देख तुझको मुस्कुराती है सहर
 
पौ फटे उठकर नज़ारे देख तो
सूर्य किरणों से नहाती है सहर
 
रोज़ तू तुलसी के पत्ते तोड़ता
नित नए कोंपल उगाती है सहर
 
नेकनामी का ढिंढोरा पीट मत
नेमतें ‘देवी’ लुटाती है सहर

<< पीछे : 2. रात का पर्दा उठा मेरे ख़ुदा आगे : 4. मुझमें जैसे बसता तू है >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो