दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    212
  
मन रहा मदहोश मेरा भोर तक
रात भर देखा जो जलवा भोर तक
 
जागरण का था समां, सोई थी मैं
कोई मुझमें मुझसा जागा भोर तक
 
ऐसी ऐसी कितनी आवाज़ें सुनीं
होश में बेहोश मैं था भोर तक
 
कितनी लम्बी थी सुरंगें, या ख़ुदा
इक सलोना ख़्वाब देखा भोर तक
 
वो ख़लाएँ थीं, गुफाएँ थीं, था क्या
बीच से ‘देवी’ मैं गुज़रा भोर तक

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