दरिया–ए–दिल

 

212    212    212    212 
 
देख कर रोज़ अख़बार की सुर्ख़ियाँ
मन में पालो न कोई ख़ुशफ़हमियाँ
 
ज्यों अनार एक हो और बीमार सौ
वैसे इक नौकरी की है सौ अर्ज़ियाँ
 
क्यों है पहरा लगा आज मुस्कान पर
घुल गयीं सुख में दुःख की क्यों परछाइयाँ
 
रास्ते हैं खुले हम नज़र बंद हैं
आने जाने की ख़ुद पे हैं पाबंदियाँ
 
ख़ुद को ख़तरे में डालो न ये सोचकर
टल गया है ये संकट, मिटी दूरियाँ
 
जो हैं छोटे, बड़ों के बड़े बन रहे
कैसे बरदाश्त हों उनकी गुस्तखियाँ
 
अब जमाने के तेवर हैं बदले हुए
छोड़ दीं सभ्यता ने सभी गालियाँ
 
है ख़ुदा, या ख़ुदाई या कुछ भी नहीं
पाल रखी है दिल ने ग़लतफ़हमियाँ

<< पीछे : 38. अपनी मुट्ठी से निकलकर वो पराई… क्रमशः

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