दरिया–ए–दिल

 
122    122    122    122
 
पढ़े तो कोई दीन-दुखियों की भाषा
ज़रा भूखे-प्यासों के चहरों की भाषा
 
जो पथरा गईं राह तकते किसी की
उन आँखों में पढ़िये उम्मीदों की भाषा
 
दिये फूल-फल शुक्र उनका करो तुम
सुनो ध्यान से पेड़-पौधों की भाषा
 
कहाँ आती है कायरों को समझ में
वो चट्टान जैसी इरादों की भाषा
 
बदलते ही रहते हैं वो बात अपने
मुखौटों को आती फ़रेबों की भाषा
 
न ईमान की ‘देवी’ बातें करो तुम
तिजारत हुई है ज़मीरों की भाषा

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