सूर्यास्त के बाद
देवी नागरानीवह रात भर सो नहीं पाई!
बोझिल आँखें लिये, अपने कमरे में पड़े पलंग के किनारे ऊँघती रही। आँगन में उगे पुराने दरख़्त का एक सूखा पत्ता भी चरमराकर गिर पड़ता तो चौंक कर आँखें खोलती, आहट टटोलती जैसे उसे किसी का इन्तज़ार हो! खिड़की के बाहर अँधेरे में देखने का प्रयास करती, पर वही नहीं दिखता जिसे वह देखना चाहती।
पिछले दो महीनों से यही बेक़रारी उसकी जीवनचर्या की जैसे एक मात्र हिस्सा बन गई। दिन भर घर के कामों में ख़ुद को उलझाना, शाम ढले मन को बहलाते हुए जमाल का इन्तज़ार करना। उसके आने का कोई समय निर्धारित न था। साँझ ढले जाता तो था, पर कहाँ जाता पता नहीं? क्यों जाता, पता नहीं? किसी भी सवाल का कोई जवाब नहीं! किससे बाँटे, किससे पूछे अपनी इस उलझी हुई ज़िन्दगी के सवालों का ताँता। जगह अनजान, बस्ती अनजान, आस-पड़ोस के लोग भी अनजान। बस्ती में नाम मात्र के कुछ घर, जहाँ लोगों का आपस में जैसे कोई लेना-देना न था। घरों के भीतर घुटन और घरों के बाहर मायूसी मँडराती!
वह अब इस सुनसान माहौल में ऊबने लगी थी। अपनी ज़िन्दगी से ख़ौफ़ खाने लगी थी। थक गई थी उस लटकती हुई इन्तज़ार की घड़ी से, जिसे देख-देखकर उसकी साँझ, रात के हर पहर से गुज़रकर सुबह होने का इन्तज़ार करती।
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यहाँ भी वह अपनी मर्ज़ी से कहाँ आई थी?
वह तो अपने गाँव की जानी-पहचानी मस्त फ़िज़ाओं में आज़ाद हिरणी की तरह घूमती-फिरती, रास्ते में आते जाते बड़े-बूढ़ों को सलाम करती, बचपन की हम-उम्र सहेलियों को पेड़ के नीचे इकट्ठा करती, चौपाल जमाती और जहाँ उन सभी की शाम गुज़रती-कुछ बातें करते, कुछ सुनते, कुछ सुनाते! ऐसी वैसी बात पर सभी सखियाँ जी खोलकर हँसती, खिलखिला उठती, लगता जैसे बन में चिड़ियाँ चहचहा रही हों।
और यही आवाज़ जब नए परदेसी के कानों में पड़ी तो वह आकर्षित होकर वहीं पेड़ की आड़ में खड़ा होकर ज़बानी बातों का ज़ायका लेकर विभोर होता रहा।
जब जीवन की दिशा बदलती है तो वक़्त अपना प्रवाह बदल देता है। किस दिशा में किसे जाना है, यह भी शायद नियति तय करती है। वह परदेसी भी नया था बस कुछ देर पहले ही इस गाँव में आया था और इस मनोहर, हँसमुख टोली की खिलखिलाहट को सुनते-सुनते कहीं न कहीं रसविभोर हुआ, कहीं घायल भी। भा गई उसे रमिया की बेबाक बातें, खुले आसमान के आज़ाद परिंदे की तरह उसका उड़ान भरना, और खुली बाँहों में जीवन के हर पल को आग़ोश में समेटकर जीना। ज़िंदगी की वीरानियों को दूर करने के सभी गुण थे उसमें, यही सोचा जमाल ने. इससे पहले हुआ था।
सुगठित बदन, तीखे नयन नक्श वाला वह नौजवान पुलिस चौकी में कोतवाल की नौकरी पर कार्यरत था। अम्मा और वह, घर के यही दो सदस्य थे। वहीं उसी गाँव में अपना दो कमरे का घर था...पर जीवन में घर की अहमियत को उसने कभी न जाना, न माना। अम्मा बरसों बरस यही कहते हुए परलोक सिधार गई- "अकेला पत्थर कब तक तन्हाई बर्दाश्त करेगा। दो से तो ऊर्जा आती है, शोले निकलते हैं, नया संसार बसता है।" पर जमाल ने कभी दो पल रुककर अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचा नहीं। अब सोचने लगा- ‘कब तक यूँ अकेला जीवन जिया जाएगा? अम्मा ठीक ही कहती थी अब उसे शादी कर लेनी चाहिए और शादी की उम्र भी तो हुई है। बत्तीस साल का हो गया है। नौकरी है, घर है, बस ज़रूरत है एक....!’ अपनी सोच को उसने विराम दिया। वह भविष्य के सपनों के संसार से वर्तमान में लौट आया।
इस गाँव में पहले भी वह दो बार क़ानूनी कार्यवाही के सिलसिले में अपने सूबेदार साहब मंगल सिंह के साथ आया है। पर आज की बात ही कुछ और थी। आज वह ड्यूटी पर न था, न वर्दी पहन रखी थी, न किसी शासक की पाबंदी ही थी। बस वह आ गया। आ गया, या नियति के प्रभाव से लाया गया। पर जो भी हुआ अच्छा हुआ, उसने तय कर लिया कि वह अब अपने दिल की बात दिल में न रखेगा। उसका समाधान पाने की कोशिश करेगा।
"मंगलू काका का मकान कहाँ है?" उसने पेड़ की आड़ से बाहर आते ही एक राहगीर से पूछा।
"उस पेड़ के पीछे चौथे नम्बर का मकान उसका है, कोई भी बताएगा," उँगली से इशारा करते हुए राहगीर आगे बढ़ गया।
पेड़ के तले लगी चौपाल में हो रही सरगोशियों से वह वाकिफ़ हुआ था, पर नहीं जानता था कि उसकी मंज़िल का रास्ता भी वहीं से होकर गुज़रता है।
कुछ लड़कियों की उस पर नज़र पड़ी और फिर सब कुछ थम गया। हँसी, मज़ाक, खिलखिलाहट, वह सभी कुछ जो पल भर पहले गाँव की हवाओं से टकराकर एक मधुर संगीत बिखेर रहा था। लड़कियाँ अपनी सीमाओं की मर्यादा से वाकिफ़ थीं, उठकर चलने को हुईं; लेकिन आवाज़ सुनते ही ठिठकी।
"मंगलू काका का घर कहाँ है?" उसने पूछा।
सभी लड़कियाँ चुप रहीं, पर उनकी आँखें रमिया की ओर मुड़ीं। मंगलू रमिया का पिता था… युवक पता पूछ रहा था… युवतियाँ चुप थीं। कौन कहे, क्या कहे, इसी उलझन में सभी रमिया के साथ खड़ी हो गईं।
"क्या आप में से कोई मुझे मंगलू काका का घर दिखाएगा?"
"आइये मेरे साथ," अचानक इस आवाज़ ने उसे अपनी ओर आकर्षित किया। रमिया के व्यक्तित्व के साथ एक सौम्यता जुड़ी हुई थी जो उसके आचरण से झलक रही थी।
अब वह रमिया के पीछे हो लिया। चौथे घर के सामने रुककर उसने हलके धक्के से दरवाज़ा खोला, अंदर क़दम रखते हुए आँखों के इशारे से अजनबी को भीतर आने का मौन निमंत्रण दिया।
नौजवान के क़दम अंदर धरते ही रमिया ने दरवाज़े के किवाड़ बंद किये। सामने खटिया पर बैठे एक प्रौढ़ व्यक्ति के सामने आकर उसने कहा- "बाबा, ये आपसे मिलने आए हैं।"
"कौन...?" लरज़ती आवाज़ में मंगलू ने पूछा।
"जी मैं जमाल, जमाल हसन! पास वाले गाँव के थाने से सूबेदार के साथ आया था, आपके घर की कार्यवाही के सिलसिले में...याद आया?"
"हाँ, हाँ, याद आया, आओ बैठो!" कहते हुए मंगलू काका ने उसी खाट पर सरककर उसके लिये स्थान बनाया।
"जी, अगले हफ़्ते थाने में आपकी सुनवाई है। आपको हाज़िर होना है, यही बताने आया हूँ," जमाल ने बैठते हुए कहा।
"अरे, अच्छा किया। आप लोगों की बदौलत मेरे पाँव अभी तक यहाँ टिके हुए हैं, वरना ज़मींदार तो मुझे यहाँ से उखाड़ फेंकने के पैंतरे फेंक रहा है। पैसा पानी की तरह बहाकर पुलिस वालों की ख़ातिरी करता है, मुझे यहाँ से निकालकर मेरा घर हड़प करना चाहता है। मालिक, अब आप ही बताएँ, कौन कमबख़्त अपनी जड़ों से उखड़ना चाहेगा? अकेला होता तो और बात होती। इस जवान लड़की को लेकर कहाँ जाऊँगा? बाप-दादाओं की यह एक ही निशानी बची है। सभी साथ छोड़ गए। पत्नी मर गई, लड़का शादी करके शहर जा बसा। बस रमिया है जो साथ निभा रही है। मैं तो इसी की चिन्ता में घुलता रहता हूँ। ऊपर से यह घर से बेघर होने की नौबत...!"
"बाबा...छोड़िए इन बीती बातों को..." रमिया ने बातों का ताँता तोड़ते हुए कहा। मंगलू बाबा अब चुप हो गए।
"आप ज़्यादा न सोचें, ख़ुदा ने चाहा तो आपका घर सलामत रहेगा। साहब ने इस मामले में पूरी जाँच-पड़ताल कर ली है और अगले हफ़्ते ज़मींदार और आपकी आख़िरी बैठक होगी। सब थाने में तय हो जाएगा, दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा!"
"अरे साब, आपके मुँह में घी शक्कर..." कहते हुए मंगलू काका ने अपनी बूढ़ी आँखों से रमिया की ओर देखते हुए कहा-
"बेटी, साहब को चाय पिला दे।"
"जी बाबा!" कहते हुए रमिया आँगन की भीतरी दीवार से सटे चबूतरे पर रखे चूल्हे पर चाय चढ़ाने लगी।
"आप तक़लीफ़ न करें, रहने दें," जमाल ने कहते हुए उठने का प्रयत्न किया।
"बैठिए, आप चाय पिये बिना नहीं जाएँगे," रमिया की ठहरी हुई आवाज़ में जैसे एक आदेश था। कौन उसे टालता? दिल तो पहले ही उसका क़ायल हुआ था। अब दावत क्या क़यामत ढायेगी, ख़ुदा जाने!
यही सोचकर जमाल फिर बैठ गया। पल भर में रमिया दो प्यालियों में चाय ले आई। घर की हालत ख़स्ता थी, हर चीज़ की कमी… तंग दीवारों के बीच जीने वाले लोग हाथ-पाँव चलाकर सुराखों वाली जीवन नैया खेते रहते हैं, पर स्वाभिमान का साथ कभी नहीं छोड़ा।
प्याली वाला हाथ आगे बढ़ाते हुए "लीजिये…," कहते हुए रमिया उसके सामने आ खड़ी हुई। प्याली के थामने के लिए जो हाथ बढ़ा, उसकी दिली तमन्ना उस वक़्त यही थी कि प्याली वाली का हाथ थाम ले। पर क़ानूनी कार्यवाही का संदेश ले आने वाले की भी एक जवाबदारी होती है कि वह अनुशासन का पालन करे!
"धन्यवाद!" कहते हुए लेने वाले हाथ ने देने वाले हाथ की मालकिन का धन्यवाद किया।
मेहमान नवाज़ी की रस्म पूरी हुई, अब उसे उठना पड़ा, मन की मर्ज़ी के ख़िलाफ़। उठते हुए जमाल ने एक बार फिर जानकारी और हिदायतें फिर से दोहराईं और दरवाज़े की ओर मुड़ गया। मंगलू काका वहीं बैठे रहे, पर रमिया दरवाज़े तक आई और पूछ बैठी, "अगले बुधवार को थाने आना है। हमारा यहाँ और कोई नहीं है, बाबा कमज़ोर हैं, वृद्ध है। क्या मैं उनके साथ वहाँ मौजूद रह सकती हूँ?"
"हाँ, हाँ… क्यों नहीं, आप आएँगी तो उन्हें भी बल मिलेगा, और दूसरी बात यह कि आप ख़ुद भी कार्यवाही की बात साफ़-साफ़ समझ लेंगी," अपने मन की ख़ुशी न ज़ाहिर करते हुए जमाल ने कहा।
"भगवान करे...!"
रमिया के वाक्य को बीच में ही काटते हुए जमाल ने कहा- "भगवान करे, फ़ैसला आपके हक़ में हो, मुझे ख़ुशी होगी।"
वह दरवाज़े से बाहर निकला और फिर बिना पीछे मुड़े आगे बढ़ता गया, जैसे नई ज़िंदगी बाँहें फैलाकर उसका इंतज़ार कर रही हो।
बुधवार का दिन, थाने में सूबेदार मंगल सिंह के कमरे में एक ओर गाँव का जाना-माना देनदार ज़मींदार, और उनके साथ कुछ रोबदार लोग धाक जमाये बैठे थे। दूसरी ओर लेनदार मंगलू काका के साथ सटकर बैठी थी रमिया। रमिया ने इस वक़्त सूती गुलाबी रंग की सलवार कमीज़ पहन रखी थी, कमीज़ पर नीले रंग के फूलों से ताल-मेल खाती नीले रंग की ओढ़नी ओढ़ रखी थी। सादगी में सौंदर्य यूँ खिल उठा जैसे रेगिस्तान में लाला!
मंगल सिंह ने अपनी जाँच-पड़ताल के आधार पर तय कर लिया था कि ज़मींदार के पास मंगलू के बाप-दादाओं का वह पुश्तैनी मकान गिरवी था, जिस पर ली हुई रक़म का ब्याज बीस साल अदा होता आया, पर पिछले चार सालों से नहीं हो पाया। सूबेदार मंगल सिंह ने बदलते क़ायदे-क़ानून की रौशनी में इस मामले को सुलझाते हुए फ़ैसला मंगल काका के हक़ में किया।
"बीस साल ब्याज भरकर, इन चार सालों में न भर पाने के अनुपात में मंगल काका ने अपनी भरपाई कर दी है। पिछले साल नया क़ानून लागू हुआ, जो ज़मीन से वाबस्ता यही कहता है कि बीस साल ब्याज वसूली के बाद आपका हक़ उस ज़मीन पर नहीं रहता। मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अब मंगलू न ब्याज देगा न अपने घर से बेघर होगा। आपको भी कड़ी हिदायत है कि इस मामले को यहीं समाप्त कर दें। इस मामले में किसी भी प्रकार का बेवजह दख़ल मै नहीं चाहता।"
सुनते ही मंगल बाबा की बाँछें खिल गईं, रमिया को छाती से लगाते हुए उनकी आँखें छलक आईं। फिर सूबेदार साहब का शुक्रिया अदा करते हुए कहने लगे, "माई-बाप आपने हमें जीवनदान दे दिया है, मैं हमेशा आपका कृतज्ञ रहूँगा।"
रमिया की नज़रों ने भी वही रस्म अदा की, छुपते-छुपाते जमाल की नज़र से नज़र मिली। होंठ ख़ामोश थे पर बेज़ुबां की ज़ुबां पढ़ने की तौफ़ीक़ रखता था जमाल। उसके तो जैसे वारे-न्यारे हो गए। उसका मन मयूर बेपर नाच उठा, वह सपनों के आकाश में विचरने लगा।
बैठक की समाप्ति हुई। ज़मींदार क्रोध में दनदनाते क़दमों से बाहर निकला और फिर धीरे-धीरे सभी अपनी-अपनी राहों की ओर चलते गए।
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अचानक ही दरवाज़े के खुलने की चरमराती आवाज़ से वह सुजाग हुई, उठी और सहारा देकर जमाल को खाट तक ले आई, जिस पर बैठते ही वह लेट गया, और फिर गहरी नींद की ख़ुमारी में खो गया।
क्या इसीलिए यह जागरण होता है, हर रात। रात भी कहाँ, पहले पहर के बाद, कभी दूसरे के बाद, कभी सूर्योदय के पहले उसका घर आना होता। यह वही जमाल था जो साथ जीने मरने की क़समें खाकर, मंगलू काका के आगे हाथ जोड़कर रमिया का हाथ माँगता रहा, जब तक उसने हामी नहीं भरी। दोनों का निक़ाह हुआ और खुशहाल जीवन में दोनों जमाल और रमिया अपने जीवन के आने वाले सुखद सपनों को संजोते रहे।
दो साल बीते, मंगल काका इस जहान से विदा हो लिये। अब रमिया की दुनिया जमाल से शुरू होकर उसी पर आकर ठहरती। वह उठे तो उसका दिन, वह सोए तो उसकी रात!
छः महीने भी नहीं गुज़रे, कि अचानक रमिया की जीवन नौका डगमगाने लगी। उसकी ख़ुशियों को ग्रहण लगने लगा। काम से वक़्त पर आने वाला जमाल अब आता तो था, पर जाने के लिए। जाने कहाँ से यह लत उसे लगी। हर रोज़ जैसे ही काम समाप्त होता, और मनहूस शाम ढलती, वह ड्यूटी का यूनिफार्म उतारकर सादा कुरता पाजामा पहनकर बस निकल पड़ता साँझ ढले उस गंदी गली की ओर जहाँ शगुफ़्ता नाम की नई नर्तकी अपना जलवा दिखाकर उसे अपने जाल में फँसा चुकी थी।
आज भी जब वह खाट पर लेटा, तो बड़बड़ाते हुए उसी का नाम ले रहा था। अपने अस्तित्व पर लगे ग्रहण से मुक्ति पाने के लिए रमिया क्या करे? यही वह सोचती रही। अपना जीवन बर्बाद होने से कैसे बचाए, जमाल को कैसे लौटा ले आए, यही कुछ सोचते-सोचते जाने कब उसकी आँख लग गई।
सुबह जमाल उठा, चाय बनाई- ख़ुद के लिए और रमिया के लिए भी। यही नियम बना था शादी के बाद जिसका निर्वाह आज भी वह कर रहा था। स्नान किया, वर्दी पहनी और कुछ खा-पीकर ड्यूटी पर चलने लगा तो रमिया ने कहा- "क्या अब ऐसा समां आया है कि आप कोई भी शाम मेरे साथ बिताना गवारा नहीं करते? मैं आपकी बीवी हूँ और मेरी कुछ माँगें हैं जिनको पूरा करना आपका फ़र्ज़ है।" और वह प्यासी आँखों से जमाल की ओर देखती रही।
जमाल ने जवाब तो कुछ नहीं दिया पर अपने दोनों हाथों में उसका चेहरा लेकर प्यार से चूम लिया। रमिया को लगा जैसे शबनमी बारिश से उसका जीवन महक उठा, ज़िन्दगी लौट आई हो। पर शाम के आसार उसे धुँधला कर देंगे, यही सोचते हुए उसे वह ख़ुशी बंजर ख़िज़ां सी सूनी लगी।
उस शाम जमाल घर लौटा ही नहीं! पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। वह घर आता, हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलता, और कभी खाना खाकर कभी बिना खाये, बहार निकल जाता। ऐसे जैसे वह सब कुछ करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा हो। पर आज तो हवाओं में जाने कैसी सनसनाहट फैली थी, जो रमिया के बदन में सिहरन भरती रही। उसका मन सोचों के बवंडर में डूबता रहा। साहिल कहीं नहीं, करे तो क्या करे, कहाँ जाए?
सूर्यास्त के बाद थम गई उसकी सोच। क्या करना है, कहाँ जाना है? जैसे उसे रास्ता मिल गया!
वह उठी, तन को मलमल के धोया, शादी का सितारों से टंका हुआ लाल जोड़ा पहना और सजधज कर चली उस शीशमहल की ओर, जिसकी चकाचौंध में उसका जमाल खो सा गया था।
अच्छे संस्कार वाले घरों कि औरतें ऐसी जगह नहीं जातीं, जहाँ मर्दों पर हुकूमत करने के लिए अपने आचरण को, अपनी ज़मीर को बेचकर घर बसा बैठती हैं वे औरतें, जिन्हें ‘वेश्या’ का नाम दिया जाता है।
एक पक्की इमारत के सामने पहुँचकर, वह पल भर को रुकी, धौंकती हुई साँसों को लम्बी साँस लेकर शांत किया फिर हवेलीनुमा उस शीशमहल के दरवाज़े की कुंडी खटखटाई। दरवाज़ा खुला और हार-शृंगार से लदी भरपूर जवानी का ग़ज़ब ढाते हुए सामने खड़ी थी शगुफ़्ता...! यही नाम उसने कई बार जमाल के मुँह से नीम बेहोशी की हालत में सुना था।
“क्या मैं शगुफ़्ता से मिल सकती हूँ?” रमिया ने सलीक़े से सामने खड़ी उस हसीना की आँखों में निहारते हुए सवाल किया।
“जी कहिये, मैं ही शगुफ़्ता हूँ,” और वह दरवाज़े से हटते हुए उसे आने के लिए इशारा कर रही थी।
"मैं अपने पति जमाल को लेने आई हूँ।"
‘ओह! तो वे आपके पति हैं जो थाने में काम करते हैं। आज वे वर्दी में ही आ गए हैं। वैसे यहाँ आने वाला कोई भी मर्द, किसी का पति नहीं होता। बस वह सिर्फ़ एक मर्द होता है जिसकी मनचाही माँग यहाँ रहने वाली हर वेश्या पूरा कर देती है। और वेश्या किसी एक की नहीं होती...उसका रिश्ता तो बस....आप जानकार हैं क्या कहूँ...।"
“आप उन्हें मुझे लौटा दें, मैं शुक्रगुजार रहूँगी,” कहते हुए उसने आस की आँखों से शगुफ़्ता की ओर निहारा।
“आइये!” कहते हुए शगुफ़्ता उसे अपने कमरे में ले आई, जहाँ धीमी रोशनी में रमिया ने पलंग पर लेटे जमाल को अस्तव्यस्त अवस्था में देखा।
“ले जाइए उन्हें, वे आपके हुए। अब मेरे दिल के व् कोठी के दरवाज़े इनके लिए हमेशा बंद रहेंगे बहन,” भरी आवाज़ में कहते हुए शगुफ़्ता ने जमाल की ओर मुख़ातिब होकर कहा।
"आपकी बीवी आई है!"
रजाई में से अपना मुँह निकालते हुए जमाल ने आँखें खोलीं। और रमिया को वहाँ देखकर ऑंखें फटी की फटी रहीं। उसे जैसे सौ बिच्छुओं का डंक लगा हो। उछलकर बैठ गया, फिर उठा और रमिया को बाँह से थामते हुए दरवाज़े से बाहर निकल आया। कहा कुछ नहीं, बस उसे लेकर घर आया।
"यह क्या हिमाक़त थी। वहाँ आने की क्या ज़रूरत थी?" जमाल चिल्लाया।
"क्योंकि शाम के बाद मेरा दम इस घर में घुटता है। सोचा मैं भी उस रंगीन माहौल को देख आऊँ, जहाँ आपके लिए हर शाम जलवेदार बन जाती है। देखना चाहती थी कि वहाँ ऐसा क्या है जो इस घर में नहीं है…," रमिया अपनी रौ में कहती रही।
"क्या देखा वहाँ?" जमाल की आवाज़ कुछ ढीली पड़ गई।
"बस देखा तो फ़क़त शगुफ़्ता को और आपको उसके स्थान पर उस हाल में.…"
"उससे क्या हासिल हुआ?" अब जमाल अपने भीतर के चोर से ही डर गया। कहीं न कहीं वह ख़ुद को मुजरिम महसूस करने लगा।
"जो मुझे वहाँ एक बार जाने से हासिल हुआ वह मेरे लिए क्या है मैं कह नहीं सकती...मैं...!" रमिया ने एक लम्बी साँस ली और खिड़की के बाहर के शून्य में निहारती रही।
"मैं, क्या...? कहाँ खो गई हो रमिया?" जमाल ने घबराहट भरे लहज़े में कहा।
पर जमाल की बात का रमिया पर कोई असर नहीं हुआ। वह जैसे अपने भीतर एक और दुनिया बसा बैठी थी- उसी में खोई हुई, कभी गहराइयों में डूबती तो कभी उभरती...! बेख़ुदी के आलम में फुसफुसाती रही… "मैं, मैं शगुफ़्ता बनना चाहती हूँ, इस घर के माहौल को बदल दूँगी, अपने आपको बदल दूँगी और एक वैसी ही दुनिया बसाऊँगी जैसी शगुफ़्ता ने बना रखी है और मेरे पास जो भी आएगा, वह किसी का पति नहीं होगा, वह सिर्फ़ जमाल होगा...मेरा जमाल! मैं अपने जमाल को खोना नहीं चाहती… शगुफ़्ता बनकर उसे पा लूँगी...पा लूँगी...।"
और वह बेख़याली में आँसू बहाती रही...और...जमाल उसे हैरत-ए-अंदाज़ से देखता ही रह गया....!
रमिया का यह नया रूप पहले से ज़्यादा निखरा हुआ था। सूर्यास्त के बाद की उजली सुबह सामने रौशनी फैला रही थी।
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