दरिया–ए–दिल

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तमाम उम्र थे भटके सुकून पाने में
मिला, मिला तो वही आके आशियाने में
 
जहाँ न चाही हुई शादी उस घराने में
बुरी तरह से फंसा था वो उस फ़साने में
 
मिरे ही दिल की थी रूदाद, कल सुनी तुमने
लगेगा वक़्त उसे आज फिर सुनाने में
 
वो पंछी जान को खतरे में डाल बैठे थे
न जाने कैसी कशिश थी उन आबो-दाने में
 
ये ‘तेरी मेरी’ अना में कहो क्या रखा है
किसी को होगा क्या हासिल यूँ आज़माने में
 
चुने हैं दो फकत तिनके, औ’ लगेंगे दो
लगेगा वक्त नया आशियां बनाने में
 
बिछड़ गए वो पुराने जो साथी थे ‘देवी’
न कोई आता है अब तो ग़रीबखाने में

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