दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    112
 
दिन बुरे हैं मगर ख़राब नहीं
इनको जीना कोई अज़ाब नहीं
 
ज़िन्दगी होगी उसकी बे मक़सद
जिसकी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं
 
उसकी गुस्तखियाँ हैं बेहूदा
जिनका कोई उसे हिजाब नहीं 
 
दोष कोई न कोई है सब में
दाग़ बिन कोई माहताब नहीं
 
कितना क़ाबिल है कितना कामिल वो
हाथ में कोई भी किताब नहीं
 
जो सिखाती ग़ज़ल मुझे हर पल
कैसे कह दूँ वो लाजवाब नहीं
 
भूखे को पेट भर जो खाना दे
इससे अच्छा कोई सबाब नहीं
 
चढ़के उतरे नशा जो पल भर में
ऐसी ‘देवी’ यहाँ शराब नहीं

<< पीछे : 36 हर हसीं चेहरा तो गुलाब नहीं आगे : 38. अपनी मुट्ठी से निकलकर वो पराई… >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो