दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    22
 
तुझको ऐ ज़िन्दगी जिया ही नहीं
जाम तेरा कभी पिया ही नहीं
 
दिल ने जो कुछ कहा, किया ही नहीं
सुनना चाहा मगर, सुना ही नहीं
 
इस किनारे से उस किनारे तक
हो मिलन, ऐसा रास्ता ही नहीं
 
हैं अदीब ऐसे ऐसे और बहुत
मेरा उन में शुमार था ही नहीं
 
थी गवाही वो झूठी, सच मानी
जुर्म साबित कभी हुआ ही नहीं
 
देखा अनदेखा कर दिया ऐसे
जैसे जो कुछ हुआ, हुआ ही नहीं
 
छत थी, दीवारें थीं, मकीं भी थे
जो मकां था वो घर बना ही नहीं
 
पारदर्शी है आईना ‘देवी’
सच कहे बिन वो मानता ही नहीं

<< पीछे : 11. नाम मेरा मिटा दिया तूने आगे : 13. रात क्या, दिन है क्या पता… >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो