दरिया–ए–दिल

 

दर्द को चुनौती देने वाली एक ऐसी शख़्सियत का नाम है देवी नागरानी जिसने दर्द को उँगली थाम कर घुमाया। दर्द से दोस्ती करके अकेलेपन को साझा किया। दर्द को राह का रोड़ा न समझ कर उन पर चढ़ना सीखा और आगे बढ़ना सीखा। दर्द से ही सृजन की ऊर्जा लेकर ज्ञान और लेखन में समाज को जो दिया वह उनकी पुस्तकों के रूप आज सबके सामने है। इसी अद्भुत सामर्थ्य का प्रमाण है उनका पहला सिंधी ग़ज़ल संग्रह ‘ग़म में भीगी खुशी’। उन्वान की गहराइयों में एक अर्थ अपना परिचय ढूँढ़ता हुआ मिलता है। 

प्रवास में सिन्धी भाषा में लिखने वाले आज बहुत ही कम लेखक मिलते है, वह भी अपनी मात्र लिपि अरबी में। ‘देवी जी’ की मातृभाषा सिन्धी है और प्रारम्भिक दौर में आपने सिन्धी में ही दो ग़ज़ल-संग्रह लिखे, ‘ग़म में भीगी खुशी’ अथवा ‘आस की शम्मा’। फिर उनका पहला हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ‘चराग़े-दिल’ पाठकों के दिलों पर दस्तक देने लगा। और परसपर ‘दिल से दिल तक’ भी दिल की वसीह पहचान बनकर आया। 

ज़िन्दगी अस्ल में तेरे ग़म का है नाम
सारी ख़ुशियाँ हैं बेकार अगर ग़म नहीं। 
                                  (चराग़े-दिल) 

केवल यही एक शेर देवी जी के पूरे व्यक्तित्व और अंतर्मन के परिचय के लिए पर्याप्त है। जिसने ग़म से साझा कर लिया उसे कौन भला दुखी कर सकता है? जिसने एकांत में रहना सीख लिया उसे कौन अकेला कर सकता है? जिसने ग़म की गहराइयों को जान लिया हो उसे कौन ग़मगीन कर सकता है? जो क़रीब से ग़म से रूबरू हुआ हो वही ग़म के इस दर्शन को जान सकता है। ज़िन्दगी जब कुछ सिखाती है तो उसकी बड़ी क़ीमत लेती है। बड़ी परीक्षाओं से गुज़रना होता है। ये सब जलजले देवी जी पी चुकी हैं, तब ही वे लिख सकी हैं। 

जिसे लोग कहते हैं ज़िन्दगी, 
वो तो इतना आसां सफ़र नहीं। 

और

ज़िन्दगी से जूझना मुश्किल हुआ इस दौर में, 
ख़ुदकुशी से ख़ुद को, लेकिन मैं बचा कर आई हूँ। 

और

इम्तहाँ ज़ीस्त ने कितने ही लिए हैं ‘देवी’
उन सलीबों को जवानी ने बहुत ढोया है। 
                                   (दिल से दिल तक) 

दर्द की गहराई को सलीब की पीड़ा के समानांतर ले जाना ग़ज़ब का काव्य सौंदर्य है। सलीब दर्द की इंतहा है, जो जवानी ने बहुत ढोया है—उम्र के उस पड़ाव पर मिली कसक से इत्तिफ़ाक कराते है। केवल एक यही लाइन जैसे दर्द को सीने में उतार देती है—ग़ज़ब की शायरी वही है जो सीधे दिल पे चोट करे, देवी जी के अल्फ़ाज़ सीधे सीने में उतरते हैं, शायद इसलिए कि वे जी हुईं और भोगी हुई हक़ीक़तें हैं। अतः वे किसी प्रयास से बनी हुई न होकर अनुभूतियों, जज़्बातों और अहसासों से बनी हैं। शीशे के मानिंद अहसासों को तब ही तो उतार पाती हैं। 

केवल पीड़ा और संवेदना उकेरने की ही बात नहीं जीवन के सभी पक्षों को देवी ने उकेरा है। नारी, समाज, देश, राजनीति, रिश्ते, नैतिकता उसूलों आदि। देखिये क्या ख़ूब लिखा है—

उसूलों पे चलना जो आसान होता
ज़मीरों के सौदे यक़ीनन न होते

कसौटी पे पूरा यहाँ कौन ‘देवी’
जो होते तो क्यों आने आज रोते

वहीं है शिवाला, वहीं एक मस्जिद
कहीं सर झुका है कहीं दिल झुका है

सामाजिक, साम्प्रदायिक, राजनैतिक, देश की दुर्दशा के प्रति आक्रोश है। धार्मिक मान्यताओं के प्रति उनके उद्गार नमन योग्य हैं। न्यायिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। उफ़ . . . 

तिजारत गवाहों की जब तक सलामत, 
क्या इन्साफ़ कर पायेगी ये अदालत। 

वतन के लिए समर्पित जोश और जज़्बा जिसे पढ़ कर ही रोमांच होने लगता है। 

दहशतें रक्सां हैं, रोज़ो-शब यहाँ
कब सुकूं पायेंगें मेरे हम वतन

जान देते जो तिरंगे के लिए
उन शहीदों का तिरंगा है कफ़न

नागरानी एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व है, बुद्ध का अर्थ बोध गम्यता। इस मोड़ पर जब चिंतन वृत्ति आ जाती है तो सब कुछ आडम्बर हीन हो जाता है, भावों को सहजता से व्यक्त करना एक स्वभाव बन जाता है। कितनी सहजता हैः

“यूँ तो पड़ाव आये गए लाख राह में, 
ख़ेमे कभी भी हमने लगाए नहीं”

कहीं वे मानती हैं कि अभिमान ठीक नहीं पर स्वाभिमान की पक्षधर हैं: 

नफ़रत से अगर बख़्शे कोई अमृत भी निगलना मुश्किल है
देवी शतरंज है ये दुनिया शह उससे पाना मुश्किल है

“लौ दर्दे दिल की” भावनाओं का गहरा समंदर है, अहसासों की लहरें हैं, निश्छल से संवेदित भाव हैं, काग़ज़ की नाव है और स्नेहिल मन की पतवार है। सतहों को हटा कर मन की तहों तक जाती एक यात्रा है। सादगी से अनुभूतियों को अंतस में उतारने की कला का अद्भुत प्रयास है। 

न हिला सके इसे जलजले न वो बारिशों में ही बह सके
उसे क्या बुझाएंगी अंधियां ये ‘चराग़े दिल’ है दिया नहीं

भावनाओं और परिस्थितियों के अंधड़ व्यक्ति को बनाते, सँवारते और बिगाड़ते हैं लेकिन कुछ मौलिक स्वभाव और वृत्तियाँ भी है जिन पर किसी का प्रभाव नहीं होता। ‘देवी’ जी का वह मूल स्वभाव है। रब में, ईश्वर में, अथाह विश्वास— उसकी रज़ा में मज़ा ही उनकी ज़िन्दगी का सबब है। चिंता नहीं है कि—

वक़्ते आख़िर आके ठहरे हैं फ़रिश्ते मौत के
जो चुराके जिस्म से ले जायेंगें जाने कहाँ? 

और बस एक ही आरज़ू है—

एक आरज़ू है दिल में फ़क़त उसके दीद की
मेरा हबीब क्यों नहीं आता है बेहिजाब? 

उनकी अपनी मातृभाषा सिन्धी में भी भजन-संग्रह ‘उड़ जा पंछी’ उनकी मनोभावनाओं का प्रतीक है। साहित्य सफ़र सिंधी से शुरू हुआ और पगडंडियाँ हिन्दी की परिधि में ले आईं। मातृभाषा से राष्ट्रभाषा तक आते-आते कितनी ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने देवी जी को सम्मानित किया। कितनी ही पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुई है। अनेकों सम्मानों से अलंकृत किया गया। एक और महत्त्वपूर्ण बात की आपने न्यूयार्क में इंग्लिश शिक्षण किया साथ ही इंग्लिश में ‘द जर्नी’ ‘Ringing Radiance’ नाम से दो काव्य-संग्रह भी प्रकाशित हैं। हिंदी, इंग्लिश, सिन्धी, गीत, ग़ज़ल, भजन, अनुवाद, समीक्षाएँ किसी भी विधा और किसी भी भाषा में उद्गारों को पूरा उतार पाने की क्षमता और कला की स्वामिनी हैं। परेशानियों को धूल सा उड़ा देने में माहिर, अत्यंत हँसमुख स्वभाव, सबको प्यार देने को आतुर, निरपेक्ष, अलमस्त, उदार—ऐसा है ‘देवी नागरानी’ का व्यक्तित्व। 

आपको एक बात कहूँ—मैं अभी तक उनसे व्यक्तिगत रूप से नहीं मिली हूँ, उनको उनके कृतित्व से ही जाना है। है न आश्चर्य की बात। उनकी रचनाएँ इतनी जीवंत है जो रचनाकार का मर्म स्वयं उजागर कर देती हैं। उनके लिए यही भाव व्यक्त करती हूँ। 

शब्द सादे भाव गहरे, काव्य की गरिमा मही, 
जल उठी ‘लौ दर्दे दिल की’ जब ग़ज़ल उसकी बनी। 

न कोई आडम्बर कहीं, बस बात कह दी सार की, 
है पीर अंतस की कहीं, पीड़ा कहीं संसार की . . .।
                                                        मृदुल कीर्ति

‘सहन-ए-दिल’ के बाद अब उनके दिल से प्रवाहित है “दरिया-ए-दिल” की रवानी जो अपने आप में ले आई है नए विचारों, नई भावनाओं की बाढ़ जिसमें कुछ दवा कुछ दुआ के दौर की सूफ़ियाना सोच भी शामिल है;
आघात संघातों की पीड़ा, मर्म में उतरीं घनी, उसी आहत पीर से ‘लौ दर्दे दिल की’ ग़ज़लें पिघल कर बहीं और ‘दरिया-ए-दिल’ बनीं। 

आलूदा मेरे ज़ख़्म हैं, दिल ख़ुश्क है कहाँ
पिघला है दर्द, बह रहा दरिया-ए-दिल वहाँ

जीवन-दर्शन को इतनी सहजता और सरलता से कहा जा सकता है, यह देवी जी की लेखन शैली से ही जाना। जैसे किसी बच्चे ने काग़ज़ की नाव इस किनारे डाली हो और वह लहरों को अपनी बात सुनाती हुई उस पार चली गयी हो। कहीं कोई पांडित्य पूर्ण भाषा नहीं पर भाव में पांडित्य पूर्ण संदेश हैं। क्लिष्ट भावों की क्लिष्टता नहीं तो लगता है, मेरे अपने ही पीर की बात हो रही है और मैं इन पंक्तियों में जीवंत हो जाती हूँ। अब इस करोना काल में भी दुआ के हाथ उठाते हैं और दिल पुकार उठता है उस एक को कुछ यूँ जैसे वो कहीं आसपास है, हर पल साथ है—

मेरे मर्ज़ की है शफ़ा तू ही
तू ही लाजवाब तबीब है

मुझे आज़माते हो बारहा
तेरी कार्रवाई अजीब है

जब पाठक स्वयं को उस भाव व्यंजना में समाहित कर लेता है, तब ही रचना में प्राण प्रतिष्ठा होती है

—डॉ. मृदुल कीर्ति
अटलांटा, यू.एस.ए. 

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