दरिया–ए–दिल


2122    1212    22
 
चलते चलते ही शाम हो जाए
मेरा वो ही क़याम हो जाए
 
फ़ैसला हो अगर मेरे हक़ में
वो ही मेरा इनाम हो जाए
 
मेरे ग़म को अवाम तक लाओ
ग़म का पैग़ाम आम हो जाए
 
हो न हो फिर तेरा मेरा मिलना
नाम तेरे ये जाम हो जाए
 
वो है नाकाम इतनी बार हुआ
कर दुआ उसका काम हो जाए
 
और बेहतर सी बात क्या होगी
कर तू बदनाम, नाम हो जाए
 
अजनबी शहर लोग और राहें
रहने का इंतज़ाम हो जाए
 
आप जैसी ग़ज़ल जो लिख पाऊँ
कुछ तो ‘देवी’ का नाम हो जाए

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