दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
दोस्त बनकर यूँ गुलों पर ज़ुल्म ढा कर चल दिए
वो बहारों में ख़िज़ाएँ उनपे लाकर चल दिए
 
अपने उन अशकों पे पर्दा डाल कर मुस्कान का
दिल में जो तूफाँ उठा था वो दबा कर चल दिए
  
दो क़दम आगे अगर बढ़ते तो हो जाता मिलन
जो था मुमकिन उसको नामुमकिन बना कर चल दिए
  
भीड़ में जब दूर थे तो वो रहे थे आस-पास
हाथ तन्हाई में अपना वो छुड़ाकर चल दिये
  
एक बिजली की तरह आना गज़ब उनका रहा
चैन दिल का, नींद आँखों की उड़ा कर चल दिए
  
बाद अरसे के मिले, ठहरे न ‘देवी’ चल दिये
हादसे अपना तआरुफ़ यूँ करा कर चल दिए

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