दरिया–ए–दिल

 

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मुझमें जैसे बसता तू है
बैठा मुझमें मुझसा तू है
 
दिल में हरदम रहता तू है
मुझको अपना लगता तू है
 
मैं सोया हूँ ग़ाफ़िल बनकर
भीतर मुझमें जागा तू है
 
कोलाहल के सन्नाटों में
कहता मैं हूँ सुनता तू है
 
मैं तो हूँ जन्मों की प्यासी
प्यास बुझाता दरिया तू है
 
सारी क़ुदरत का तू मालिक
सच में एक ही आक़ा तू है
 
आगे और कहूँ क्या ‘देवी’
मैं तेरी हूँ, मेरा तू है

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