दरिया–ए–दिल

1222    1222    1222    1222
 
है हर पीढ़ी का अपना अपना बस इक मरहला यारो
न सोचो कुछ भी, होगा क्या यहाँ उस नस्ल का यारो
 
अगर समझौते के सच को कोई जो मानता यारो
तो फिर मंज़िल वही उसकी,  वही है रास्ता यारो
 
है कितना ग़ैर वाजिब दिल किसी का तोड़ना अब तो
कि जैसे क़त्ल हो जाए किसी इन्सान का यारो
 
किसी के घर में, दिल में घुस के देखोगे तो जानोगे
वहाँ हलचल है कैसी और है क्या माजरा यारो
 
न दौलत के तराज़ू में कभी इंसानियत तोलो
भले नुक़सान हो अपना,  न तोड़ो आस्था यारो
 
इशारों को समझना और समझाना नहीं आसां
विवेकी को दिखाती राह है बस प्रार्थना यारो
 
मुक़ाम आसानी से पाने की ख़ातिर गिरता है कोई
मगर क़ाबिल वही जो डट के करता सामना यारो
 
बरी करना किसे बंदी,  ये तय करती अदालत है
करे इन्साफ जो ‘देवी’,  वो जाने क़ायदा यारो
 

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