दरिया–ए–दिल

 
2122    1212    22
 
रात क्या, दिन है क्या पता ही नहीं
शायरी से ये दिल भरा ही नहीं
 
लोग कहते हैं वो नशा ही नहीं
बैठ मैखाने गर पिया ही नहीं
 
फिर वही लोग ये भी कहते हैं
होश में मैं कभी रहा ही नहीं
 
वो सुनाते रहे मैं सुनता रहा
वक्त गुज़रा पता चला ही नहीं
 
नूर की, तर्ज़ की, अदम की सुनी
जो था सुनना उसे सुना ही नहीं
 
अब भी भीतर मेरे मचलता जो
है वो बच्चा बड़ा हुआ ही नहीं
 
दस्तकें जितनी दीं न काम आईं
बंद था जो, वो दर खुला ही नहीं
 
है नशा क्या बता तू ऐ ‘देवी’
घट के मयखाने में गया ही नहीं?

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