दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
ले गया कोई चुरा कर मेरे हिस्से की ख़ुशी
ज़ब्त करके रोशनी बस दे गया है तीरगी
 
आशना कोई नहीं था सब के सब थे अजनबी
आया जब महफ़िल में अपना, दिल को राहत तो मिली
 
जाम पर वह जाम पीता ही रहा, प्यासा था वो
बुझते बुझते ही बुझेगी, रेत सी ये तिश्नगी
 
ख़ौफ़ कल था अब नहीं है, डर के जीना भी है क्या
मरना ही है एक दिन गर, फिर तो जी लें ज़िन्दगी
 
आज़माइश तब भी थी, है आज भी इस दौर में
दूर ऐसे में हुआ है आदमी से आदमी
 
कर सको अच्छा न गर तुम, मत बुरा करना कभी
सोच कर देखो ज़रा होती है क्या नेकी-बदी
 
दो पड़ोसी दोनों दुश्मन, दोस्त ऐसे बन गए
जब गिरा घर एक का, दूजे ने दी आसूदगी
 
आज तक गुस्ताख़ी ऐसी करने की ज़ुर्रत न की
आँख से काजल चुराकर जिसने की है दिल्लगी
 
पर कटे पंछी से पूछो, ऊँचा उड़ना भी है क्या
वो बताएगा ये ‘देवी’, होती क्या है बेबसी

<< पीछे : 17. ग़म की बाहर थी क़तारें और मैं… आगे : 61. कर दे रौशन दिल को फिर से वो… >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो