दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
थरथराता रह गया डर का अधर बरसात में
बूँद भी था इस समंदर की लहर बरसात में
 
कैसा क़ुदरत ने किया बरपा ख़तर बरसात में
ढा रही हैं रंजिशें कैसा क़हर बरसात में
 
बेबसी और बेकसी का था वहाँ आलम बसा
दहशतों का क्रूर मंज़र था मगर बरसात में
 
घर तो घर वे लोग सारे साथ जलमय हो गए 
डूबता था आदमी, सारा नगर बरसात में
 
घर दरो दीवार ‘देवी’ चीख़ों के आँचल में थे
तिनकों की मानिंद रवां था ये सफ़र बरसात में

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