दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
किसने लिखी है वसीयत, उसकी भी और मेरी भी
एक ही जैसी है क़िस्मत, उसकी भी और मेरी भी
 
घुल गयी है कुछ ख़यानत आजकल दोनों तरफ़
अब नहीं पहली सी नीयत, उसकी भी और मेरी भी
 
जब सितमगर बनके मुन्सिफ़ आया मेरे सामने
देखने जैसी थी हालत, उसकी भी और मेरी भी
 
मौक़ा पाते ही न चूके वार करने से कभी 
थी तो ये बेशक शरारत, उसकी भी और मेरी भी
 
लीजिये, साज़िश में शामिल हो गई तक़दीर भी
यूँ कहाँ बिगड़ी थी हालत, उसकी भी और मेरी भी
 
आरज़ू के नाम पर हमने बसर की ज़िन्दगी 
अब वह कहलाती है जन्नत, उसकी भी और मेरी भी
 
कौन वो सुल्तान था मुन्सिफ भी जो साबित हुआ
हो गई ‘देवी’ ज़मानत, उसकी भी और मेरी भी

<< पीछे : 81. मैं जहाँ के सभी गुलशन या समंदर… आगे : 83. थरथराता रह गया डर का अधर बरसात… >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कहानी
कहानी
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो