दरिया–ए–दिल

 

122    122    122    122
  
वहाँ कुछ किसी का सलामत नहीं है 
जहाँ पर दिलों में शराफ़त नहीं है
 
जला दी दरिंदों ने बस्ती हमारी  
जो कहते रहे उनको नफ़रत नहीं है
 
वो तन मन को रौशन करे है उजाला 
कहो कैसे कह दूँ  इनायत नहीं है
 
मेरे दिल के आईने में है अक्स उसका
कहूँ कैसे दिलबर की सूरत नहीं है
 
मैं झूठों की बस्ती में रहती हूँ सच है
कहूँ सच मगर यह रवायत नहीं है
 
बग़ावत की बातों से बू आ रही है
कहे जा रहे हो बग़ावत नहीं है
 
रहो मंदिरों में रहो मस्जिदों में
न दिल से करो गर इबादत नहीं है
 
धड़कता है दिल ये इनायत ख़ुदा की
ठिकाना है उसका इमारत नहीं है

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