दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    22
 
हाँ यक़ीनन सँवर गया कोई
उसके दर पर अगर गया कोई
 
पाक दामन था जिसने फैलाया
वो दुआओं से भर गया कोई
 
रात ग़फ़लत में सारी बीत गई
लौट पिछले पहर गया कोई
 
ख़ामुशी ने दी कितनी आवाज़ें
अनसुनी फिर भी कर गया कोई
 
हैं गुहर क़ीमती मिरे भीतर
बाख़बर मुझको कर गया कोई
 
लम्स ख़ामोश इतना था ‘देवी’
छूके मेरा अधर गया कोई

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