दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212 
 
ये वो है कशकोल जिसका छेद भी दिखता नहीं
ख़्वाहिशों का ये कुआँ क्योंकर कभी भरता नहीं
 
बोझ अपने ही तले धरती है धँसती जा रही
ख़ैर कर मौला, क़हर से कोई क्यों डरता नहीं
 
आस्माँ छूने की ज़िद में मन उड़ा क्यों जा रहा
पैर जाने क्यों ज़मीं पर आजकल पड़ता नहीं
 
जाने किस हालात से मजबूर होकर ले लिया
वर्ना क़र्ज़ा वह किसी से लेने की करता नहीं
 
क्या है नीयत इसकी-उसकी, तेरी-मेरी जाने सब 
करता है इन्साफ जो वो, क्यों किसे खलता नहीं 
 
वक़्त है बेदारगी का फिर भी काफ़िर सो रहा 
नींद से ग़फ़लत की नादाँ ‘देवी’ क्यों उठता नहीं

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