दरिया–ए–दिल

 
1221    2121    1221    212
 
क्या जाने मैंने क्यों लिखी, इस रेत पर ग़ज़ल
आख़िर फिसल के रह गयी, इस रेत पर ग़ज़ल
 
दरिया-ए-दिल में रह रह तूफ़ान उठ रहा
हर इक लहर थी लिख रही, इस रेत पर ग़ज़ल
 
आधी अधूरी ख़्वाहिशें मन में मचल उठीं
शिद्दत ने कह दी अनकही, इस रेत पर ग़ज़ल
 
जब रेगज़ार में मिला ढूँढ़े न इक सराब
प्यासे लबों ने तब लिखी, इस रेत पर ग़ज़ल
 
सूरज की किरणें पानी में जब तैरने लगीं
तब रोशनी तराशती, इस रेत पर ग़ज़ल
 
सुर ताल साज़ जब कभी आकर मिले यहाँ
ना धिन तिनक तिनक बनी, इस रेत पर ग़ज़ल
 
‘देवी’ न कर सकी बयाँ तूफ़ान का उफ़ान
रूदाद ने उकेर दी, इस रेत पर ग़ज़ल

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