दरिया–ए–दिल

 
1222    1222    1222    1222 
  
हमारा क्या है सरमाया अनोखा है गणित लगता 
समझ कुछ और कहती है, तजुर्बा और कुछ कहता
 
अनोखा नूर भीतर की ख़लाओं में निहाँ रहता
कि जैसे दीप कोई तेल बिन दिल में मेरे जलता
 
न जाने ज़िन्दगी है माँगती क़ुर्बानियाँ कितनी
कभी जोड़ा हुआ असबाब भी है छोड़ना पड़ता
 
कमानी पड़ती है पूँजी जिसे हम ‘मान’ कहते हैं
लगी इक उम्र तब जाना है क्यों यह देर से मिलता
 
लगी थी आग पहले फिर हुई कोशिश बुझाने की
जहाँ है आग और पानी, वहीं तो है धुआँ उठता
 
ये खिलने की, वो मुरझाने की कैसी दास्तानें हैं
इन आँखों ने तो सहरा में है देखा लाला इक खिलता
 
हवाओं का भी क्या कहना, कहाँ क्या क्या है ले जाती
वहीं ले जाती है ख़ुश्बू जहाँ कोई नहीं रहता 
 
खरा है कौन, खोटा कौन ये तो बस ख़ुदा जाने
कसौटी पर कभी रखकर न ख़ुद को आज तक देखा
 
अजब देखा है संग़म ये जुदाई का, मिलन का भी
कहाँ साया भी मेरे साथ ‘देवी’ धूप बिन चलता

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