दरिया–ए–दिल

 

1212    1122    1212    22 
 
तमाम उम्र थे भटके सुकून पाने में
मिला तो आके वो अपने ही आशियाने में
 
मिरे ही दिल की थी रूदाद, कल सुनी तुमने
लगेगा वक़्त उसे आज फिर सुनाने में
 
वो पंछी जान को ख़तरे में डाल बैठे थे
न जाने कैसी कशिश थी उस आबो-दाने में
 
ये ‘तेरी मेरी’ अना में कहो क्या रखा है
किसी को होगा क्या हासिल यूँ आज़माने में
 
चुने हैं दो ही फ़क़त तिनके, औ’ लगेंगे दो
लगेगा वक़्त नया आशियाँ बनाने में
 
बिछड़ गए वो पुराने जो साथी थे ‘देवी’
न कोई आता न जाता ग़रीबखाने में 

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