दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    212
  
सिसकियों से वास्ता सा हो गया 
दर्द बहकर एक दरिया हो गया 
 
जी उठे जब खँडहर सीने में फिर 
दिल की धड़कन में इज़ाफ़ा हो गया 
 
जब सुकून के रास्ते सब बंद थे 
तब दुआ के दर से नाता हो गया 
 
पास आकर दूर जब ख़ुशियाँ हुईं 
तब उदासी में इज़ाफ़ा हो गया 
 
प्यार नफ़रत की फ़सीलें गिर पडीं
ये न पूछो कैसे ऐसा हो गया 
 
ज़िन्दगी थी, या कोई सपना था वो 
आँख खुलते रेज़ा रेज़ा हो गया 
 
ग़म की सूली पर जो लटका जीते जी
टूटकर ‘देवी’ मसीहा हो गया

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