विभाजन के बाद सिंधी लेखिकाओं का सिंधी साहित्य में संघर्ष
देवी नागरानी‘साहित्य में स्त्री संघर्ष’ –स्त्री और संघर्ष- नामक उन्वान अपनी परतें खोलने पर आमादा है, शायद जन्म से ही यह संघर्ष स्त्री को विरासत में मिला है, शक्ति सम्पन्न नारी को किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए कुदरत की ओर से मिला यह एक वरदान ही तो है।
साहित्य न तो कोई शस्त्र है, न ही वह क्रांति करने-कराने का ज़रिया है। वह फ़क़त इल्म की रोशनी में इंसान को स्वतंत्र ढंग से जीने की, आगे बढ़ने की, समस्याओं को समझने की, उनके समाधान पाने की, उनसे जूझने की शक्ति, एक नई सोच और नज़रिया प्रदान करता है।
आज़ादी के पहले और आज़ादी के दौर में निरंतर साहित्य विकास के रास्तों से गुज़रकर अब प्रत्यक्ष रूप में सामने आया है। आज़ादी के बाद भारत में एक नया परिवर्तन आया, जो तब न था, वो अब है। घर की चौखट के भीतर बैठी नारी आज स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में सक्षम हुई है। अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब नारी का ध्येय बन गया है। स्वरूप ध्रुव के शब्दों में:
सुलगती हवा में स्वास ले रही हूँ दोस्तो
पत्थर से पत्थर घिस रही हूँ दोस्तो!
सदियों से चले आ रहे नारी विमर्श के चक्रव्यूह को नारियों ने ही तोड़ा है, जो एक अरसे तक मौन की चादर ओढ़कर आगे बढ़ते हुए भी न बढ़ सकीं। पिता, भाई और पति की सत्ता के तहत उनके तबक़े व दबाव में वे फ़क़त घर की दहलीज़ की ख़ामोश साँकल से बँधी रहीं। इस पुरुष प्रधान समाज में हर त्याग, उत्सर्ग, दया, करुणा, और सहनशीलता की अपेक्षा हमेशा नारी से की जाती है। शायद अब मौन मुखरित होने का समय आया है। लम्बे अरसे से हो रहे दमन और शोषण के कारण नारी चेतना जागृत होकर नारी विमर्शों को जन्म देने में कामयाब हुई है, जिसमें नारी ने ही नारी को अपने अस्तित्व की पहचान और शनाख़्त पाने के लिए अग्रसर किया है।
1960 के पश्चात देश भर की नारी जाति और सिंधी लेखिकाओं ने स्त्री समाज की चेतना के विकास की ओर क़दम बढ़ाया। नारी ने ही अपनी जाति पर, नारी मन की गूँगी पीड़ा पर लिखा और बेज़ुबानी को क़लम कि धार से ज़ाहिर किया। इस चेतना की प्रतिक्रिया ने नारी को अपने वजूद की नई पहचान पाने का अवसर प्रदान किया, अबला होने के पुराने पैरहन को बदल कर सबला होने का कवच पहनते हुए, ख़ुद को आत्म निर्भर बनाने की राह पर लाकर खड़ा किया।
‘सिंधी साहित्य में संघर्ष’ शोध की नींव पर सिंधी लेखिकाओं ने अपनी क़लम के बलबूते पर नारी संघर्ष से ओतप्रोत कहानियों व कविताओं की अभिव्यक्ति से, किरदारों के माध्यम से उनके मनोभावों व जद्दोजेहद की कश्मकश को उकारा। विभाजन के बाद उन बदले हुए हालत और मसाईल के दौर से गुज़रते हुए, भोगते हुए, जो देखा, सुना और महसूस किया उसे अपनी हैसियत अनुसार अपनी पहचान और रुतबे को ध्यान में रखते हुए स्वतंत्र अस्तित्व की बात सामने लाते हुए सामाजिक मान्यताओं को बढ़ावा दिया। पुरुषवादी व्यवस्था और विचारधारा के प्रति आक्रोश प्रकट किया। क़लम को हथियार बनाकर काव्य के माध्यम, कहानी व आप बीती के नाम पर अपनी वेदना ज़ाहिर की। सच तो यह है कि धीरे-धीरे महिला प्रतिभा का विकास और स्त्री लेखन की चुनौतियाँ को स्वीकारती महिलाएँ अपनी पहचान बनाती गईं। सच सूरज की रोशनी की तरह सामने आने लगा। विभाजन के पहले और विभाजन के बाद वे इसमें कितनी कामयाब और कितनी नाकामयाब रही हैं, यह सिंधी अदब पर किए गए शोधाचार्यों के लेखन में दिखाई देता है।
यह एक मुद्दा है- ऐसे कथन का कोई पुष्ट पक्ष तो तय नहीं किया जा सकता है कि विभाजन के बाद नारी लेखन में कितना विकास हुआ, कितनी कामयाबी मिली, और कितनी नाकामयाबी? इसका कोई मापदंड तो है नहीं, कि उसका मूल्यांकन किया जा सके, पर एक बात है: अपना जायज़ मुक़ाम हासिल करने के संघर्ष में नारी ने जो क़दम आगे बढ़ाया, तद पश्चात पीछे मुड़ कर नहीं देखा, यह सच हमारे सामने है। जद्दोजहद करके अपना रुतबा और अपनी पहचान बरक़रार रखने की सकारात्मक कोशिश करते हुए अपना उचित स्थान, मान-सम्मान पाने की राह पर आगे और आगे बढ़ रही है।
लेखिकाओं की श्रेष्ठता व दौरानुसार तीन विभाजित खंड है। पहले दौर की दस्तावेज़ी लेखिकाओं ने अपनी क़लम के बलबूते पर समाज में, अपने आस-पास नारी पर होती हुई ज़्यादतियों, जात-पात के भेद-भाव, छूत-छात की विडम्बनाओं, अंतरजातीय विवाह से संबन्धित रिश्तों का कुंठित व्यवहार, विधवाओं के साथ हो रही बेइन्साफ़ियों को कहानी, उपन्यास, शायरी में किरदारों के माध्यम से उजगार किया है। अपनी जात के खिलाफ़ होती मुसीबतों का मुक़ाबला करने के लिए नारी ने कमर कस ली है- इनके मिसाल साहित्य के पन्नों में दर्ज काव्य, कहानी, उपन्यास के अंश दरपेश करते आ रहे हैं।
पहले दौर की वरिष्ठ सिंधी साहित्य की हस्ताक्षर लेखिकाएँ अपने लेखन के माध्यम से अपने साथ, अपने आस-पास हो रही ज़्यादतियों, कुनीतियों को दर्शाने में गतिशील रहीं। दस्तावेज़ी कहानीकार तारा मीरचंदाणी की कहानी ‘आज की सीता‘ में घर की बहू को घर में ही, कलंकित साबित करने की ख़ातिर किया गया मानव मन का षड्यंत्र अपने विकृत रूप में दर्शाया गया है, जिसके एवज़ अपने ही घर की लाजवंती, घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती है। सुंदरी उत्तमचंदाणी की कहानी ‘याद के सुनसान महल में’, एवं कहानी ‘भूरी’ में परिवार-परिवेश की कथा-व्यथा सुनाए हुए, नए स्वरूपों के माध्यम से छुआछूत, जाति-भेद व संघर्षमय पहलुओं पर लिखते हुए नारी जाति को अँधेरे से उजाले में लाने में कोशिश की है। एक और मन को छूती भावनात्मक ज़मीन पर कमला मोहनलाल बेलाणी की गढ़ी कहानी “मासूम यादें”...जिसका मैंने अरबी सिंधी से हिन्दी में अनुवाद किया है.... एक सोज़ भरी कहानी, ख़ून के आँसू बहाती हुई रागिनी बनकर लेखिका के अंदर को चीरती रही भीतर से किसी आवाज़ का आलाप बनकर जैसे कह रही हो -तुमने ऐसा क्यों किया? क्यों इन्सानियत का ख़ून किया? एक अंश कहानी का – “मैं रोती हूँ... तड़पती हूँ... नैनों से असुवन का आबशार बहाती हूँ... बावजूद इसके जग में जीती हूँ । मैंने उसको बार-बार चूमा, उसकी उँगलियों को अपनी ऊँगलियों से उलझाकर स्पर्श महसूस करती रही। वह शर्मा जाता था। उसकी शर्मीली मुस्कराहट पर मैं अपना सर क़ुरबान करने को तैयार थी। नहीं जानती थी कि उसकी आँखों में कौन-सा जादू भरा था। चाहती थी कि मैं उसकी आँखों में बस जाऊँ, वह आँखें बंद कर ले और मैं उनमें समा जाऊँ।‘
उसने मेरे गालों पर अपना हाथ फेरा था ।“...…
..... बस एक अछूत मासूम बालक के साथ एक सभ्य समाज की लेखिका का स्पर्श का रिश्ता, उससे उपजी स्नेह की डोर जब तार-तार होने लगती है जब उसे पता चलता है कि वह मासूम जिसने उसके गाल पर हाथ फिराया, एक अछूत था। जिसे अपने आग़ोश में भर लिया था वह दलित था....! और वहीं मनुष्यता धराशायी हो जाती है.....!
इसका उत्तर कहाँ ढूँढ़े...? कहाँ उन उसूलों के परचम फहराएँ जो गाँधीजी ने, महात्मा फुले ने सुधारक बनकर यहीं कहीं अपने संघर्षों से स्थापित किए थे? क्या उनका कोई मोल नहीं, या वे सिर्फ़ कही-सुनी बातें थीं। बस सब कुछ बीत जाने के पश्चात, अंतिम चरण बनकर परिचय सामने आता है और कहानी समाप्त होती है। एक टँगा हुआ प्रश्न चिह्न हर बार की तरह आज फिर भी सामने खड़ा है....!
औरत और मर्द दोनों संसार की उत्पति के प्रधान पहिये हैं, जो नवनिर्माण के अहम कारण हैं। शक्ति, बुद्धि, विवेक जितना पुरुष को प्राप्त है उतना ही स्त्री को। बावजूद इसके भारतीय समाज में पुरुष प्रधानता के कारण नारी अपने कांधों पर उठाए ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबी सी रह जाती है। अब विश्लेषण से जो सच सामने आया है वही सच समाज के सामने क़लम के ज़रिये डंके की चोट पर ज़ाहिर किया गया है। नारी की क़लम की नोक अपनी ही जाति के साथ हुई कुनीतियों पर, अन्याय के ख़िलाफ़ अपनी जद्दोजेहद को एक ख़ामोश ज़बान देती है। अब नारी वह नहीं, जिसे मर्द की सत्ता के दायरे में कमज़ोर और अबला समझकर अपने घर की चौखट से बाँधकर रखा जाय।
वीणा शिरंगी की कहानी ‘जेल की डाइरी’ एक सनसनी भरी कहानी...जेल में क़ातिल औरत की आत्महत्या.... एक ऐसी पत्नी की कहानी है जो हर दिन अपने जीवन का मातम मनाती है, जब कभी कोई पल उसके लिए अज़ाब बनता है...उसके ख़ून में किसी और एक ख़ून की मिलावट का आभास....जो उसे मरने के पहले मरने का अहसास कराता है!
यही है नारी जाति की कश्मकश, अपनी आन-बान, मान-मर्यादा को बचाने के लिए पेचीदा पगडंडी पर आई हर मुश्किल में वह संघर्ष से मुख़ातिब रहती है। अपनी अस्मत के सौदागर को बख़्शने की बजाय मौत के घाट उतारती है। क़ानून को हाथों में लेना ग़ैर वाजिब है, पर कहानी का अंजाम तय करता है कि परिस्थिति की दहलीज़ पर औरत अपने हक़ में फ़ैसला करते हुए अपने आत्म-सम्मान को बनाए रखने में सफल हुई है।
उसी दौर में ‘सैलाब ज़िंदगी का’ नॉवल में अदीबा पोपटी हीरानंदाणी ने, सामाजिक पहलुओं से वाकिफ़ कराते हुए, पुरुष की दोहरी ज़िंदगी को उजगार करते हुए दावेदारी की है कि औरत को आत्म-सम्मान के साथ जीने का हक़ मिलना चाहिए। औरत अपनी हैसियत चाहती है, सम्मानजनक जीवन की सुरक्षा चाहती है, अगर वह फ़ेमिनिस्ट भी है तो इसका मतलब क़तई यह नहीं कि वह नारी नहीं है। पोपटी हीरानन्दानी ने अपनी सोच को बेबाकी के साथ अपनी आत्म कथा में ज़ाहिर करते हुए लिखा है- “शादी एक सहज स्वभाविक संस्था है और हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में इस संस्था के बाहर रहकर जीना मुश्किल है। न औरत होना गुनाह है और न ही शादी करने में कोई ख़ामी है। विपरीत बुद्धि वाले कुछ भी कहते रहें, मेरी समझ सरल है, इसीलिये उनके कहने की परवाह करने की मुझे कभी भी ज़रूरत नहीं पड़ी है।” आगे अपनी जीवनी में उन्होने अपने विचार को स्पष्ट करते हुए लिखा है “औरत के अस्तित्व की एक ख़ास अहमियत है, और मैं उस अहमियत को बनाए रखने के हक़ में हूँ। औरत और मर्द दोनों को अपने अपने दायरे में रहना और निभाना है।“ यही बात ज्यादा महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके क्या कुछ नहीं होता इस जहाँ में खुले आसमान तले!
सिंधी समाज के बीच रहते हुए, पुरुष सत्ता के अधीन नारी की परिवर्तनशील अवस्थाओं के संदर्भ में सिंध की शायरा अतिया दाऊद ने भी अपनी जात के हक़ में अनेक कवितायें लिखी हैं...चौंकने वाली, डंक मारती हुई- ‘खोटे बाट’ नामक कविता में वे कहती है…
“ग़ैरत के नाम पर ‘कारी’ करके मारो,
किसी को भी दूसरी, तीसरी और चौथी औरत बनाओ..... !”
फिर एक जगह इसी मानसिकता को एक नया अर्थ देते हुए अतिया जी लिखती हैं-
मुझे गोश्त की थाली समझ कर
चील की तरह झपट पड़ते हो
उसे मैं प्यार समझूँ ?
इतनी भोली तो मैं नहीं
मुझसे तुम्हारा मोह ऐसा है
जैसा बिल्ली का छिछड़े से
उसे मैं प्यार समझूँ ?
इतनी भोली तो मैं नहीं ---“(मांस का लोथड़ा..12)
स्त्रियों का पहले की तरह अनपढ़ होना, उनका अबोध होना, अब कोई गुण न होकर अवगुण माना जाने लगा। राजनैतिक, सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी लेने की छूट तो तब भी सपना ही था। इन्हीं बातों की पुष्टि करते हुए कात्यायनी ने अपने एक महत्वपूर्ण लेख में लिखा है- "राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी के समर्थन के साथ-साथ पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि प्रश्नों पर सुधारवादी दृष्टिकोण वाली कहानियाँ और उपन्यास बड़े पैमाने पर लिखे गये, लेकिन स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता और पुरुष वर्चस्ववादी सामाजिक संरचना एवं उससे जुड़े नैतिक मूल्यजगत में उसकी प्रगति की राहें बंद हैं। "
यह है औरत की अपने हिस्से की लड़ाई, ख़ुद से, आदमी से, समाज से, जो वह लड़ती आ रही है -कारण एक है-समाज में मान सम्मान और एक से अधिकार पाना, यही उसकी माँग है। यही नारी मुक्ति का उद्देश्य है, मतलब नारी का अपना विकास और विस्तार! वह जानती है कि वह पुरुष की सहधर्मिणी है, पर आज सीता को आदर्श मानकर वह गर्दन झुकाकर ‘हाँ’ कहने को तैयार नहीं। उस पर लगाए इल्ज़ाम अब वह ख़ामोशी से स्वीकार नहीं करती। वरिष्ठ कहानीकार माया राही की ‘एक कठपुतली’ नामक कविता इक्कीसवीं सदी में मात्र एक सपना है।
नई पीढ़ी की लेखिकाओं का ज़िक्र आते ही उनके क़लम की स्याही उनके तेज़ाबी तेवरों से अवगत कराती है। इस दौर के लेखन में क़लम के तेवरों में ध्यान आकर्षित वाली नोकदार पहलू दिखाई देते हैं, जहाँ औरत अपने मनोभावों को ज़बान देते हुए न झिझकती है, न डर का कोई बादल उसे घेरे रहता है। बस अभिव्यक्त करने की, सच के सामने आईना रखने की एक चेतना जागृत दिखाई देती है। डॉ. कमला गोकलाणी की संयुक्त परिवार की नींव पर लिखी कहानी ‘महरबान माधवी’- में एक अनोखी वारदात पेश है। अपने ज़मीर की आवाज़ को दबाकर, संसार में स्थापित परिवार नामक संस्था को चलाने के लिए, अपने पति की सुरक्षा की ख़ातिर, माधवी ने अपने आप को ग़ैर मर्द को समर्पित कर दिया.… यह भी एक जंग जैसी परिस्थिति है, जीवन मंच पर एक लंबी लड़ाई- जिसके संघर्ष में भी नारी की पहल सामने आती है।
आज की नौजवान पीढ़ी अपनी कविताओं में अपने मज़बूत इरादों को, सोच-विचार को बिना किसी डर, बिना किसी झिझक सामने लाती है। ‘निर्भया’ आज भी हमारे दिलों में ज्वालामुखी बनकर धधक रही है जिसके लिए कवियित्री शालिनी सागर ने लिखा है:
निर्भया के सपनों का महल,
मर्द ने चूर चूर कर दिया.....
फ़क़त अपनी वासना की पूर्ति की ख़ातिर ....!
अभिव्यक्ति, मर्द की करतूत की ओर निशाना साधकर, साफ़गोई से डंके की चोट पर ऐलान कर रही है। यह भी एक संघर्ष है जो आज भी नारी समाज में अपनी सुरक्षा के लिए करती आ रही है। सधी हुई लेखिका इन्दिरा शबनम ने भी अपने मन की वेदना को प्रभावशाली तर्क देते हुए लिखा है...
“चार पाँच मर्दों की वहशियत का शिकार बनी
वह बेगुनाह, मासूम बच्ची जिन्हें
काका, दादा, भाऊ, मामा कहकर पुकारती थी.…”
इसी संदर्भ में एक कड़ी जोड़ते हुए मेरी सिसकती सोच भी अपनी चीख़ों के साथ एक कविता के अंश में शामिल है...
सोचिये,
सोचिये मत ग़ौर कीजिये
जब औरत वही क़दम
उठा पाने की हिम्मत जुटा पाएगी
तब.... / तोड़ न पाओगे
न मोड़ पाओगे उस हिम्मत को ...
जो राख़ के तले /
चिंगारी बनकर छुपी हुई है
दबी हुई है, बुझी नहीं है
मत छेड़ो, मत आज़माओ,
उसको जो जन-जीवन के
निर्माण का अणु है।
मत बनो हत्यारे
उन जज़्बों के, उन अधूरे ख्वाबों के
जो ज़िंदा आँखों में
पनपने की तौफ़ीक़ रखते हैं।
ध्यान केन्द्रित करने योग्य अवस्था है, भावनाओं के सुंदर, सरल भाषा में मात्र इज़हार नहीं है, यह नारी मन की रूदाद है। बावजूद इसके देखा गया है कि स्वार्थी फितरत अपनी कमज़ोर मनसिकता के बस में उस एक कमजोर पल में क़यामत का जामा ओढ़ कर एक ज़िंदगी तबाह करने से बाज़ नहीं आती। अब विचार करने योग्य बात यह है कि कौन किसे, किस नाम से पुकारे जो सही अर्थों में सार्थकता का प्रतीक बन सके?
नारी लेखिका इस संघर्ष की राह पर अपनी ही जात की दुर्दशा पर अपने सीने में आक्रोश, नफ़रत की आग को दबाये, शब्दों के इस्तेमाल से अपने मनोभावों को काव्य में अभिव्यक्त करती है। कुछ ऐसा ही तेज़ाब घोलती हुई अभिव्यक्ति सिंध कि लेखिका के शब्दों में हर नारी की बात का समर्थन कर रही है: यह भी तो एक नारी की चीख है--
“मेरा वजूद काटा गया है,
सच के सलीब पर, जितनी बार भी
वजूद चढ़ाया गया है
एक नया जनम मैंने भोगा है
पर बार-बार की फ़ना और तख़लीक ने
मुझे थका दिया है....!”
यह है नारी की विडम्बना!
स्थापित लेखिकाओं के साथ-साथ नए वक़्त के नए लेखन का भी उच्चारण होना ज़रूरी है ताकि नए कोंपल प्रेरणात्मक सहयोग पाकर, उनके तजुर्बों से कुछ हासिल करते हुए अधिक निखरने के अवसर पा सके। ऐसी प्रेरणा उनके लिए साध्य का काम करेगी और नई ताज़गी भरी रचनात्मक ऊर्जा एक नया सवेरा लेकर आएगी। उनका उठाया अगला क़दम नव पीढ़ी का मुबारक क़दम होगा....!
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