दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    22
 
मेरी  हर बात का बुरा  माना
मैंने अपना जिसे ख़ुदा माना
 
वो मिरी शख़्सियत का हिस्सा है
उसने ख़ुद को है क्यों जुदा माना
 
इसलिए ज़हर वो निगल पाई
दर्द  को उसने जब दवा माना
 
‘वो है ज़िद्दी, वो कैसे मानेगी’
झूठ साबित भी कर दिया, माना
 
जितनी पाबंदियाँ लगा लो जी
मैंने ख़ुद को सदा रिहा माना
 
अपनी मनवा ही लेता है ये मन
कब किसी का कहा  सुना माना
 
उसकी संजीदगी थी पोशीदा
जिसको ‘देवी’ था मनचला माना

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