ज़िन्दगी की नुक्कड़

01-04-2022

ज़िन्दगी की नुक्कड़

देवी नागरानी (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सुना वो शादी शुदा था . . . कहते हैं शादी ही ऐसी दुर्घटना है जहाँ चोट लगने के पहले हल्दी लगा दी जाती है, ज़ख़्म बाद में नासूर बनकर रिसते हैं। 

रेल रोड के सामने गली की नुक्कड़ पर, मैंने पान की पहली दुकान लगाई। दुकान क्या थी, बस मिट्टी के टीले पर एक खोखा, उसपर लाल रंग का गीला कपड़ा बिछा हुआ, जिसपे रखे रहते हैं पान के पत्ते, सुपारी, गुलकंद, चूना-कत्था, कुछ मसालों के डिब्बे, और बीड़ियाँ! 

आते–जाते कोई बीड़ी ले जाता, तो कोई पान, कोई सिगरेट की माँग करता और न मिलने पर निराश लौट जाता। पर रोज़गार तो रोज़गार है, चलता रहा एक पुरानी गाड़ी की तरह। एक दिन एक सुंदर सी लाल गाड़ी आकर सामने रुकी, खिड़की से पच्चास रुपये देते हुए एक नौजवान ने दो पान लिए, एक खाने के लिए और एक ले जाने के लिए, और सिगरेट की माँग की। न मिलने पर नोट देकर बिना छूटे पैसे लिए ही वह चला गया। यक़ीनन कोई रईस था। आए दिन, हफ़्ते दो हफ़्ते जब भी आता—दो पान लेता और कुछ पैसे दे जाता। एक बार पाँच सौ रुपये देते हुए कहा, "दुकान ढंग से बना लो और सिगरेट भी रखा करो।”

लोगों का आना–जाना लगा रहा, दुकान अच्छी चलने लगी। मैंने सिगरेट के कुछ पैकेट मँगवा लिए थे ऐसे रईस लोगों के लिए। अब मेरी आँखें आये दिन उसकी बाट जोहतीं, नुक्कड़ तक जाकर लौट आतीं, और दिल कुछ उदास हो जाता। जाने क्यों लगता जैसे कोई मेरा अपना नज़र से दूर हुआ हो। 

देखने को मुन्तज़िर मेरी आँखें उसे तलाशतीं, इंतज़ार करतीं। कई दिन बीते, कई हफ़्ते, अचानक छह महीनों के बाद वह आया, पर बाइक पर, आगे कोई और था पीछे वह। हमेशा की तरह उसने दो पान बनवाये और पहली बार बीड़ी की माँगी तो मैं चौंका। ग़ौर से देखा तो हुलिया भी बदला हुआ लगा—बाल बिखरे से, आँखें लाल, और कपड़े अस्त–व्यस्त! बस हाथ हिलाता हुआ बाइक पर पीछे बैठा और चला गया। मैं बस उसी दिशा में देखता रहा, जब तक वह नज़रों से ओझल न हुआ। जाने क्या सोचता रहा, बस मन पर उदासी के बादल छा गए। 

लगभग एक महीने के बाद वह फिर आया, तो लगा जैसे वह अपने पैरों पर खड़े होने के क़ाबिल न था। मैं तख़्ते से नीचे उतरा, उसका हाथ थामा और कुर्सी पर बिठाया। दो पान उसके मिज़ाज के बनाकर उसे दिये और सवाली आँखों से उसकी ओर देखा। उसने आँखें न मिलाकर अपनी गर्दन कुछ और झुका ली। उठने की कोशिश में कुछ लड़खड़ाया पर उठते ही चला गया। लगा जैसे उसने ज़िन्दगी के खेल में ख़ुद को दाँव पर लगाया हो, और ज़िन्दगी से हार गया हो। 

सवाल उठता है कि क्या हम ज़िन्दगी जीते है या ज़िन्दगी हमें जीती है? 

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