दरिया–ए–दिल

 

2122     2122     2122     212
 
तू ही जाने तेरी मर्ज़ी, या ख़ुदा कुछ और है
अब तो होगा तू जो चाहे, ये रज़ा कुछ और है
 
आदमी से आदमी का वास्ता है कम हुआ
जो नक़ाबों में छुपे उनका पता कुछ और है
 
क्या ही दिन थे, क्या थीं रातें, कुछ न पहले सा रहा
आया है बदलाव भारी, क़ायदा कुछ और है
 
कहती है कुछ करती है कुछ शोख़ नज़रों की अदा
बेवफ़ा हैं कुछ अदाएँ, बावफ़ा कुछ और है
 
अनगिनत होगी वजह वैसे उदासी के लिए
बेसबब रहने में है जो, वो मज़ा कुछ और है
 
जानी अनजानी सी आवाज़ें बुलाती हैं मुझे
जो बुलाती पास मुझको, वो सदा कुछ और है
 
जानता हर दर्द को हर मर्ज़ को मौला मेरा
बिन कहे बरसा रहा जो, वो शफ़ा कुछ और है
 
दूर है ‘देवी’ वतन से यादें दिल के आस पास
भर दे सांसो में जो ख़ुश्बू, वो हवा कुछ और है

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