दरिया–ए–दिल


 
122    122    122    12
 
घनी छाँव देता वो माओं का आँचल
वो ममता की लोरी, वो बाँहों का आँचल
 
बसा था अँधेरा सभी उन घरों में
जहाँ पर न लहराया माओं का आँचल
 
विरासत में माँगी थी दौलत सभी ने
किसी ने न माँगा दुआओं का आँचल
 
ज़मीं क़र्ज़ की उसको लेकर ही डूबी
गिरा वज्र बनके दग़ाओं का आँचल
 
उसे बेगुनह मानता कोई कैसे
रिदा बन गया जब ख़ताओं का आँचल
 
वो रक़्से-जहाँ से हुआ आशाना तब
लगा रोकने जब अदाओं का आँचल

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