दरिया–ए–दिल

 

1222    1222    1222    1222
 
महरबां ज़िन्दगी क्या क्या सिखाती है सिखाती है 
नया इक पाठ जीवन का पढ़ाती है पढ़ाती है
 
वो रोशन राह पर बिन तेल के दीपक जलाती है
वो लाकर राह पर जीवन सजाती है सजाती है
 
वो अपनी पर उतर आए तो क्या से क्या है हो जाता
कहीं जाहिल को भी कामिल बनाती है बनाती है 
 
मुहब्बत जब कभी दिल में बना लेती है घर अपना
वो गुलशन की तरह दिल को सजाती है सजाती है
 
अगर हो जाय क़िस्मत यह मेहरबां जिसपे तो समझो
बनाकर ज़हर को अमृत पिलाती है पिलाती है
 
समंदर में ले अपनी अपनी कश्ती तो कई उतरे
मगर क्या पार वो सबको लगाती है लगाती है
 
अजब है ज़िन्दगी देकर ख़ुशी ग़म के सबब हमको
तजुर्बों की निवाज़िश से सजाती है सजाती है 
 
न छेड़ो, आज़माओ तुम इसे ‘देवी’, वो छिड़ने पर
पलटकर धौंस तगड़ी फिर जमाती है जमाती है

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