गरम स्पर्श
देवी नागरानी
सिंधी कहानी
मूल लेखक: अर्जुन चावला
अनुवाद: देवी नागरानी
कैप्टन मनीष को आसाम से नागालैंड में तबादले का ऑर्डर मिला तो दिल कुछ उदास होने लगा। पर और भी बहुत सारे साथियों को तबादले के ऑर्डर आए थे यह जानकार कुछ ढाढ़स मिला। सोचा कुछ तो दोस्त साथ होंगे। वक़्त अच्छा बीतेगा।
नागा विद्रोहियों की सरगरमियाँ काफ़ी बढ़ी हुई थीं। यही देखते हुए पहाड़ी फ़ौज की चार बटालियन कोहिमा में भेजनी ज़रूरी समझा गया। कैप्टन मनीष कोहिमा रेजीमेंट हैडक्वार्टर पर हाज़िर हुए तो उसकी कम्पनी को कोहिमा से 60 किलोमीटर की दूरी पर ख़ूबसूरत पहाड़ियों के दामन में फ़ौजी कैम्प में पहुँचने का आदेश मिला। जैसे ही वे कैम्प पहुँचे तो चारों ओर नज़र फिराते हुए बहुत प्रसन्न हुए। चारों तरफ़ ऊँचे पहाड़, उन पर साल और देवदार के पेड़। नीचे मैदानों में चारों ओर मीलों तक फैली हरियाली और सब्ज़ मख़मली घास। तरह-तरह के कुसुमित पुष्पों ने उसका मन मोह लिया। दूसरे दिन शाम को जीप में कैम्प से दो मील की दूरी पर निरीक्षण चौकी का मुआयना करके लौटे तो रास्ते में छोटे से रेस्टोरेंट में कॉफ़ी पीने के लिए जीप रोक दी। भीतर कोने में पड़ी टेबल पर कॉफ़ी का ऑर्डर देकर बैठे ही थे कि उनकी नज़र कुछ दूर बैठे एक जोड़े पर गई। दोनों ने मुस्कुराते, गर्दन हिलाकर कैप्टन का अभिवादन किया। कैप्टन ने देखा कि दोनों स्थानीय थे। नौजवान टी-शर्ट और जीन्स में और चेहरे-मोहरे से नागा। पर लड़की स्कर्ट व ब्लाउज़ पहने हुए, ख़ूबसूरत सुडौल जिस्म, नाक-नक़्श तीखा! दोनों ने आपस में कुछ खुसुरफुसुर की और उठकर कैप्टन के पास आए।
“हैलो सर, मे वी गिव यू कम्पनी?”
“ओ शुअर, शुअर,” कैप्टन ने चारों तरफ़ पड़ी कुर्सियों की ओर इशारा कराते हुए कहा। पहाड़ी वेशभूषा में बैरा कॉफ़ी लेकर आया तो कैप्टन ने उसे दो कप और लाने के लिए कहा। बैरा कॉफ़ी रखकर चला गया, पर वे तीनों तब तक चुप रहे। आँखों में हल्की मुस्कराहट, पर बिना कुछ कहे नागा नौजवान ने कॉफ़ी का कप कैप्टन की ओर बढ़ाया।
“थैंक यू।”
कैप्टन ने कप लेकर उन्हें भी इशारा किया।
“डॉली वांगज़ू,” नौजवान नागा ने पास बैठी लड़की के कंधे पर हाथ रखते हुए उसका नाम बताया।
“मी फिलिप,” फिर अपना नाम दोहराया। कैप्टन ने मुस्कुराते हुए अपनी पहचान दी।
“मनीष।”
कैम्प में लौटकर मनीष ने हाथ-मुँह धोकर रात को मेस (भोजन-कक्ष) में डिनर खाने गया। वहाँ बातों-बातों में उसने मेजर खन्ना को नागा जोड़े के साथ हुई मुलाक़ात के बारे में बताया।
“जोड़ी तो बहुत ख़ूबसूरत थी, पर पता नहीं चला कि उनका आपसी रिश्ता क्या है?”
कैप्टन ने बड़े चाह के साथ कहा।
“पर आपको चिंता क्यों है कि वे आपस में क्या लगते हैं?”
“नहीं, नहीं, मेरा उसमें क्या!” कैप्टन ने तत्पर जवाब देकर बात को टाल दिया।
दूसरे दिन पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार बाग़ियों के खिलाफ़ अभियान में तीन दिन के लिए जाने का ऑर्डर मिला। कैम्प से लारियों का क़ाफ़िला उत्तर-पूर्व की तरफ़ रवाना हुआ तो नौजवानों में उत्साह था। उनके चमकते चेहरों से यूँ जान पड़ता था कि वे मैदान मारकर लौटेंगे।
कैम्प से रवाना होने पर मैदानी इलाक़े से गुज़रते लारियों का क़ाफ़िला थोड़ी देर के लिए मिट्टी के ग़ुबार में गुम हो गया। सिर्फ़ लारियों की इंजन की गड़गड़ाहट और ज़ू-ज़ू की आवाज़ सुनाई दे रही थी। कुछ देर के बाद मैदानी इलाक़ा पार करके क़ाफ़िला जैसे बोम-ला पहाड़ी के कच्चे रास्ते से ऊँचाई चढ़ने लगा, वैसे ही गुब्बार पीछे रह गया। दूर से जटिल पहाड़ी पगडंडियों में लारियों का सिलसिला इतना छोटा सा लग रहा था मानो बच्चों ने अपने लारी नुमाँ खिलौनों में चाबी भरकर एक दूजे के पीछे छोड़ दी हों। कैम्प में पीछे रह गए जवान हाथ हिलाकर क़ाफ़िले को देर तक विदा कराते रहे। पल में ही क़ाफ़िला ओझल हो गया। तीन दिन के बाद क़ाफ़िला लौटा। मुख़बिरों की सूचनानुसार फ़ौजियों ने बोम-ला पहाड़ियों के पीछे बाग़ियों के अड्डों को चारों तरफ़ से घेराव के पहले ही बाग़ी फ़रार हो गए। सारा इलाक़ा छान मारा फिर भी कोई सुराग़ नहीं मिला।
कैप्टन मनीष दोस्तों के साथ ‘मेस’ में गप-शप करने के बावजूद भी बोरियत महसूस करने लगा था। एक दिन फिर जीप में बैठकर कैम्प से बाहर जाकर उसी रैस्टोरेंट में कॉफ़ी पीने के लिए पहुँचा। भीतर पहुँचा तो उसकी नज़र डॉली वाँगज़ू पर पड़ी जो कोने में पड़ी टेबल पर अख़बार पढ़ रही थी। इस बार वह अकेली थी। कैप्टन मनीष अभी दूसरे कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठ ही रहा था कि डॉली वहाँ से उठकर उसके पास आई।
“हैलो कैप्टन,” डॉली ने मुस्कुराते हुए उसका अभिवादन किया।
“हैलो मैडम! हाउ डू यू डू?”
मनीष उसका नाम भूल गया था। डॉली ने उसे याद दिलाते हुए कहा, “डॉली सर!”
“ओह डॉली प्लीज़!” कैप्टन ने अपनी ग़लती स्वीकारते हुए कहा।
डॉली फ़ौरन दूसरी कुर्सी पर बैठी और उससे तीन-चार दिन नज़र न आने का कारण पूछा। पर मनीष ने, ‘कैम्प से आने का मौक़ा न मिलने’ की वजह बताकर बात वहीं ख़त्म कर दी। दोनों ने मिलकर कॉफ़ी पी। मनीष ने डॉली से उसके माँ-बाप के बारे में जानना चाहा। डॉली ने उसे बताया कि वह मिशनरी स्कूल से दो साल पहले मैट्रिक पास कर चुकी है। उसके माता-पिता दोनों मिशनरी स्कूल में टीचर थे। स्कूल के बाद दोनों मिशनरी के प्रचार का काम करते थे।
मनीष रह-रह कर डॉली की आँखों में निहारता रहा; उनमें बेहिसाब कशिश थी। बॉब कट सुनहरी बालों की लटें कभी-कभी हवा के झोंके से उसके सुर्ख़ गालों को चूमने की कोशिश कर रही थीं, जिन्हें डॉली बायें हाथ की कनिष्ठिका के लम्बे नाखून से निहायत ख़ूबसूरत अंदाज़ में हटाती रही।
मनीष उसके चेहरे को बार-बार ग़ौर से देख रहा था। सोच रहा था कि डॉली का नाक-नक़्श न बर्मी था, न ही चीनी वंश का। पहाड़ियों की तरह उसका नाक चिपटा और समतल भी नहीं था। बल्कि उत्तरी भारत के मैदानी इलाक़े के आर्य वंश का नाक-नक़्श था। बेपनाह हुस्न का ऐसा बुत देश के दूर-दराज़ घनी पहाड़ियों व वादियों में भी मिल सकता है। वह सोचता रहा।
मनीष का जी उठने को नहीं हो रहा था। पर कैम्प में वक़्त पर पहुँचना था। इसलिए डॉली की ओर मुस्कराकर उठने लगा। डॉली ने एक अजीब मुस्कराहट के साथ कंधे को एक मामूली झटका देकर इजाज़त लेनी चाही, तो मनीष से रहा नहीं गया। डॉली का हाथ हाथों में थामकर उसकी आँखों में झाँकता रहा, जैसे उसके बेपनाह हुस्न को नज़रों से एक ही घूँट में पीना चाहता हो। डॉली की मस्ती भरी निगाहों में मनीष पल भर के लिए अपनी सुध-बुध भुला बैठा। अचानक हाथ की उँगलियों पर डॉली के सुर्ख़ लबों का स्पर्श महसूस करते हुए होश में आया। उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया। ख़ुद को सँभालते हुए अगले दिन मिलने का वादा करते हुए वह मुस्कराकर जीप में सवार होकर चला गया। पर रास्ते भर में एक अनोखा अहसास उसके साथ रहा। एक अजीब मादकता उस पर हावी रही। कैम्प में लौटकर थोड़ी देर के लिए वह अपने तम्बू में जाकर लेटा। काफ़ी देर तक किसी ख़ूबसूरत ख़याल ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। काश, डॉली के साथ व्याह रचाकर उसे राजस्थान में अपने घर लेकर जा सकता। आकाश की इस अप्सरा को अपनी बाँहों में भरकर प्यार करता, या कभी सामने बिठाकर सज्दा करता। डॉली को हासिल करके, काश वह स्वर्ग के असली आनन्द का अनुभव कर पाता। घड़ी-पल की मुलाक़ात में मनीष को डॉली की शांत नीली आँखों की गहराई में एक अजीब कशिश के साथ-साथ नज़दीकी और अपनापन भी नज़र आया था।
दूसरे दिन फिर बाग़ियों के खिलाफ़ अभियान का दूसरा चरण उत्तर-पश्चिम की तरफ़ ज़ो-ला पहाड़ियों की घाटियों में निश्चित हुआ। शाम के वक़्त अँधेरा होने के बाद मुख़बिरों की गुप्त सूचना के अनुसार फ़ौजी दल ज़ो-ला पहाड़ियों की तरफ़ रवाना हुआ। बाग़ियों का दल ज़ो-ला की बड़ी पहाड़ी के पीछे छिपे रहने की जानकारी थी। फ़ौजी जवानों ने ज़ो-ला दर्रे से काफ़ी पहले लारियों को रोका और हथियारों के साथ पैदल चल पड़े। चाँदनी रात थी। दुश्मन की नज़र न पड़े इसलिए छोटी-छोटी टोलियों में ज़ो-ला दर्रे के नज़दीकी द्वार पर पहुँचे और फ़ौरन दो-दो आदमियों के ग्रुप में तितर-बितर होकर पहाड़ियों के घने झुंड की ओट में छुपकर मोर्चे सँभाले बैठे रहे। कैप्टन मनीष ने अपने साथ तेज करन को रख लिया।
अमावस के बाद चौथे दिन वाला चाँद बहुत देर न रुक सका। अँधेरा जैसे-जैसे बढ़ने लगा वैसे-वैसे सिपाहियों की बेसब्री बढ़ने लगी। पता नहीं, शायद सारी रात यूँ ही टोह में बैठे गुज़र जाये। यूँ ही इन्तज़ार करते रात का अन्तिम पहर आ गया। अचानक ज़ो-ला दर्रे के छोर पर ऐसे लगा, जैसे कुछ धुँधली परछाइयाँ बिना आवाज़ के आगे बढ़ रही हैं। टोह में बैठे फ़ौजी दल के सिपाहियों में हरक़त आ गई। सभी हाथ राइफ़लों और मशीन गनों के ट्रिगरों पर पहुँच गए; और कैप्टन मनीष के ऑर्डर का इन्तज़ार करने लगे।
धुँधली परछाइयाँ काले लिबास में धीरे-धीरे उन झाड़ियों के घने झुरमुट की तरफ़ बढ़ रही थीं, जिनकी ओट में कैप्टन मनीष और सूबेदार तेज करन टोह में बैठे थे। दूसरे दल से एक फ़ौजी की राइफ़ल से अचानक गोली चल जाने से दो साये एक तरफ़ दौड़े, और दो कैप्टन के दल की तरफ़। कैप्टन की पिस्तौल की गोली से एक गिर पड़ा। फ़ौजी दस्ते के लिये कैप्टन का यह इशारा जैसे ऑर्डर था। चारों तरफ़ से मशीन गनों से गोलियों की बौछार शुरू हो गई। जवाब में बाग़ियों ने गोलियाँ चलाईं, पर कुछ देर के बाद जवाबी गोलियों की आवाज़ शान्त हो गई। फ़ौजी दल की गोलीबारी ज़ारी रही। काफ़ी देर तक जवाबी गोलियों के न आने से फ़ौजी दल ने भी गोलीबारी बन्द कर दी।
पौ फटते ही रोशनी का प्रभामण्डल बढ़ने लगा। फ़ौजी पहाड़ियों से निकल कर अपने शिकार को कब्ज़े में करने के लिए उतावले हो रहे थे। पर कैप्टन ने उन्हें रोका, कि कहीं दुश्मन ताक लगाए बैठा हो और अचानक हमला कर दे। इसलिए सिर्फ़ दो फ़ौजी जाकर लाशों का निरीक्षण करें। दो नौजवानों ने आगे बढ़कर झाड़ियों से लाशें ढूँढ़ निकालीं। कुल दो लाशें मिलीं। शिनाख़्त करने की कोशिश की गई, पर बेकार। इतने में कैप्टन और साथी भी पहुँच गए। बाग़ियों की लाशों की पहचान पाना मुश्किल काम था। शक्ल से एक मर्द लग रहा था तो दूसरी औरत। दोनों ने गहरे नीले रंग की बुशर्ट और जीन्स पहनी हुई थी। जैसे ही दो जवानों ने उलटी पड़ी लाशों को सीधा करके लिटाया तो कैप्टन अकस्मात् चौंक उठा। “डॉली! फिलिप! माइ गॉड।” ऐसा कहते कैप्टन का चेहरा शांत और गंभीर हो गया। झुककर उसने डॉली के सर्द चेहरे से बालों की लट अपनी गरम उँगलियों से हटाकर दूर कर दी। पर डॉली का सर्द चेहरा मनीष की उँगलियों का गरम स्पर्श महसूस कर न सका!
मूल लेखक परिचय:
नाम: अर्जुन चावला, (गर्म स्पर्श)
अलीगढ़, (यू पी)
जन्म: 10 फरवरी 1931, काशमोर, (सिन्ध)
शिक्षा: M.A. (अँग्रेजी साहित्य), बी.एड., डी.एस.
प्रकाशित: 4 काव्य संग्रह, एक मज़मून पर।
पुरस्कार/सम्मान: CHD से ‘चारण चोरियो चंग’, NCPSL से ‘उभरया अक्स हज़ार’ पर पुरस्कृत, विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
के. आर. गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज, ग्वालियर के प्राध्यापक रहे। कई संस्थाओं से सम्मानित
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