दरिया–ए–दिल

 
2122    2122    2122    212
 
ग़म की बाहर थी क़तारें और मैं भीतर निहाँ
दिल पे पहरा देने वाला जब हुआ था मेहरबां
 
देखकर तब्दीलियों को आदमी हैरान है
बस रहीं आबादियों में आजकल बरबादियाँ
 
करने को मनमानियाँ देती है मौक़े ज़िन्दगी
वक़्त के आगे मगर चलती कहाँ मनमानियाँ
 
कोशिशों के बाद भी हासिल नहीं होता कभी
देनी होगी जाने कितनी और भी क़ुर्बानियाँ
 
मैंने सीखे हैं अदब आदाब कुछ-कुछ आपसे
माफ़ करना उनमें शामिल है अगर गुस्ताख़ियाँ
 
रौनक़ों के रुख़ यूँ बेरुख़ तो न देखे थे कभी
देखकर सन्नाटों को कुम्हला रही शादाबियाँ
 
क्या हुआ है वक़्त को जैसे हैं मंज़र थम गए
शोर में पैग़ाम कैसा दे रही ख़ामोशियाँ
 
जाने कैसा है लगा ‘देवी उजालों को गहन
इक नया सूरज जो निकले तो मिटे तारीकियाँ

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