दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
सुब्हदम तू जागरण के गीत गाती जा सबा
जागना है देश की ख़ातिर बताती जा सबा
 
चैन से रहने नहीं देते हमें फ़िरक़ा परस्त
पाठ उन्हें अम्नो-अमां का तू पढ़ाती जा सबा
 
दनदनाती फिर रही है घर में गद्दारों की फ़ौज
भाईचारे की उन्हें घुट्टी पिलाती जा सबा
 
बँट गये हैं क्यों बशर, रिश्ते सलामत क्यों नहीं
राह में दीवार जो भी है, गिराती जा सबा
 
बेयक़ीनी से हुए हैं दिल हमारे बदगुमां
गर्द दिल के आईने पर छाई है हटाती जा सबा
 
उनका जलना, उनका बुझना तय करेगा तेरा रुख़
आस के दीपक बुझे हैं, तू जलाती जा सबा
 
जाद-ए-मंज़िल पे ‘देवी’ छा गई है तीरगी
हो सके तो इक नया सूरज उगाती जा सबा

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