दरिया–ए–दिल

 

दोहा ग़ज़ल:
 
सहरा सहरा ज़िन्दगी ढूँढ़ रही है आब
ख़ुश्क हुआ हर दिल यहाँ, आँखों में सैलाब
 
छोड़े कैसे आपकी कविता अपनी छाप
पढ़ो न जब साहित्य ही, पूरी तरह जनाब
 
आये सब के सामने जितने किए गुनाह
शर्मिंदा होना पड़ा, जब जब दिया हिसाब
 
प्रश्न कई उठते रहे, आँखों में हर रात
उत्तर ढो कर ले गया, अश्कों का सैलाब
 
रात करवटों में कटी, दिल को मिला न चैन
नींद बिना यूँ उम्र भर सहना पड़ा अज़ाब
 
बंद झरोखे खोल दे यूँ न अँधेरा पाल
खोल दरीचे ज़ेहन के, किरणें हैं बेताब
 
बहुत मेहरबां ज़िन्दगी, खोल रही हर राज़
पाना है 'देवी’ तुम्हें, काँटों बीच गुलाब

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