बदनाम बस्ती 

01-01-2022

बदनाम बस्ती 

देवी नागरानी (अंक: 196, जनवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मूल कहानी (सिंधी कहानी): आनंद टहलरामाणी
अनुवाद: देवी नागरानी 

 

झोंपड़ी के बाहर, खिड़की पर बैठी रेशमा बीड़ी पी रही है। सूर्य की पहली किरण उसके साँवले चहरे को चमका रही है। उसकी आँखेंं कुछ रोशनी के कारण, कुछ बीड़ी के धुएँ की वजह से लाल हुई हैं। उसकी पेशानी पर सिलवटें ज़ाहिर कर रही हैं कि वह कुछ गहरा सोच रही है। मायूसी उसके चेहरे से नुमायाँ हो रही है। बीड़ी के आख़िरी टुकड़े से, दो तीन फूँक और मारते हुए, बीड़ी फेंकी और वह उठ खड़ी हुई। 

वह खड़ी चारों ओर देख रही थी, बस्ती की और झोपड़ियाँ कुछ नीचे, कुछ थोड़ी दूर, चारों तरफ़ फैली हुई हैं। आगे शाही रास्ता है जहाँ सुबह की चहल-पहल शुरू हो गई है। पीछे शानदार बँगले हैं जिनमें अभी तक कोई हलचल नहीं है। यह गोपालपुरी है, शहर के सुंदर चेहरे पर बदनाम दाग़ों में से एक बड़ा दाग़! यह ‘बदनाम बस्ती’ के नाम से ज़्यादा मशहूर है। बदनाम इसलिये है कि, कहते हैं सभी बुराइयाँ यहाँ जन्म लेती हैं, और बुरे काम इस बस्ती का सरमाया है। गंदगी, कचरे और मैल का घर है यह बस्ती! फैलती बीमारियों की जड़ यह बस्ती ही है। फिर भी इस बस्ती में इन्सान रहते हैं (अगर उन्हें इन्सान कहना वाजिब है तो! ) जो कीड़े मकौड़े की मानिंद बढ़ रहे हैं और झोंपड़ियाँ भी मकड़ियों के जाल की तरह फैल रही हैं। 

रेशमा भी इस गंदगी का कीड़ा है। इस बस्ती का एक हिस्सा है, यहीं पर उसका जन्म हुआ और पलकर बड़ी हुई। उसकी माँ के बारे में सभी यहाँ के लोग जानते हैं, उसे देखा है। वह भी इसी बस्ती की रहवासी थी। कालू रेशमा का भाई कहलवाता है। कहते हैं कालू के बाप का एक रात दारू के लिये पैसे न मिलने के कारण रेशमा की माँ के साथ झगड़ा हो गया। दूसरे दिन सुबह से वह ग़ायब रहा, पर किसी ने भी उसे तलाशने की कोशिश नहीं की, क्योंकि यहाँ ऐसा होता रहता है। 

कभी कोई आदमी (पति कहना इतना लाज़मी नहीं है) औरत से झगड़ा करे, कभी नशे में उसे मारकर चला जाए तो, अक़्सर दो-तीन दिन के बाद लौट आता है, औरत से माफ़ी माँगता है और अच्छे चाल-चलन की क़सम खाकर ज़मानत देता है। बस समझो कि औरत-मर्द के बीच में कुछ अरसे के लिये सुलह हो गई। किन हालातों में मर्द दो-तीन महीने लापता हो जाता है और फिर अचानक एक दिन लौटकर ज़ाहिर होता है और औरत पर मर्द होने का दावा करता है। लेकिन अपनी जगह पर किसी और मर्द को देखकर कोहराम मचाता है। बस्ती के चार भले-बुरे आदमी इकट्ठे होकर उसपर लानत उछालते हैं, “छी-ऐसा-वैसा! तुझमें जब औरत को पालने की हिम्मत नहीं है तो फिर तुम्हें मर्द कहलाने का कोई हक़ नहीं।” और बेचारा बड़ों की लानत सुनकर, मुँह छिपाता हुआ किसी और बस्ती में जा बसता है। औरत-मर्द के सम्बन्ध से पैदा हुआ बालक, उनके बीच की खींचतान से बेख़बर, फुटपाथ पर या बस्ती में पलकर बड़ा होता है। माँ की जानकारी तो उसे अक़्सर होती है, पर बाप की नहीं! 

कालू का बाप फिर वापस नहीं लौटा। उसकी जगह भरते हुए किसी को नहीं देखा गया। रेशमा की माँ पीछे वाले दो-चार बँगलों में मेहनत-मज़दूरी करके पेट पालती रही। कालू बड़ा हो गया, बस्ती में और लड़कों की तरह भटकता और खाता-पीता था और एक दिन यह ख़बर मिली कि रेशमा की माँ को बेटी पैदा हुई है। कुछ कहा–सुना नहीं हुआ। जिसने बच्चे को देखा, कहा, “भई वाह! इसका रंग नैन-नक़्श तो झोंपड़ी में रहने वालो जैसा नहीं लगता।”

किसी और ने कहा, “लड़की तो नहीं, जैसे कोई सुंदर गुड़िया है।”

किसी ने जवाब दिया, “नर्म और मुलायम ऐसी है जैसी रेशम! यह तो पालनों में पलने के लिये पैदा हुई है।”

रेशमा पालनों में तो नहीं पली, पर इस बस्ती की सख़्त पथरीली ज़मीन पर लेटी, कभी फुटपाथ की पथरीली चादर पर सोकर बड़ी हुई। माँ के साथ मेहनत और मज़दूरी करके उसका शरीर पुष्ट और हड्डियाँ लोहे की तरह सख़्त हुई हैं। रेशमा आज जवान है, उसके अंग-अंग से अल्हड़ जवानी झाँक रही थी, जिसकी सँभाल करने के लिये माँ का साथ था, पर पिछले बरस वह भी रेशमा को अकेला छोड़कर परलोक पधार गई। अकेली रेशमा को अपनी जवानी की रक्षा करने के लिये कभी-कभी चंडीमाता का रूप अख़्तियार करना पड़ता था। 

इस बस्ती की कोई मय्यार न थी। जो चीज़ खुले बाज़ार में नहीं मिलती, वह यहाँ मिल जाती। स्त्री की इज़्ज़त और अस्मत भी और चीज़ों की तरह यहाँ बिकती है। यहाँ हर चीज़ का सौदा होता है, दीन और ईमान भी बिकता है! साँझ होते ही इस बस्ती के रंग-ढंग बदल जाते हैं, इसलिये यह बस्ती बदनाम है। 

रेशमा ने इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाई। बस्ती अभी नींद में थी। झोंपड़ियों के बाहर जीवित इन्सान सोये थे, पर वहाँ अभी कोई हलचल नहीं दिखाई पड़ रही थी। नीचे झोंपड़ी के बाजू में स्त्री सूअर लेटी हुई थी, और सात-आठ बच्चे उससे लिपट रहे थे और बारी-बारी दूध पीने की कोशिश कर रहे थे। 

खिड़की से थोड़ा नीचे, रेशमा ने देखा कि उसका भाई कालू टूटी हुई खाट पर लेटा था। एक कुत्ता वहाँ से गुज़रा, खाट के नज़दीक जाकर एक टाँग उसने ऊपर की ही थी कि . . . रेशमा ने उसे दुत्कारा और पास में पड़ा हुआ पत्थर उठाकर फेंका। कुत्ता ‘कीं-कीं’ करता भाग गया। 

“रेशमा।” 

और उसने पीछे मुड़कर देखा, वह चम्पा थी, जवान और गठीली, उम्र में उससे कुछ छोटी। 

“क्यों मुर्दार! आज सवेरे ही उठकर आ गई हो, रात कोई ग्राहक नहीं मिला क्या?” 
“भाड़ में जाए ग्राहक,” कहते उसने बीड़ी से एक लंबा कश लिया और धुआँ नथुनों से छोड़ते हुए पास में रखे पत्थर पर बैठ गई। रेशमा ने भी उसके साथ-साथ बैठते हुए पूछा, “क्यों क्या हुआ है?” 

“उस दिन वाली वारदात ने तो नींद ही हराम कर दी है रेशमा!” उसने रेशमा की ओर देखा और आँखें उठाकर एक सरसरी निगाह मुर्दा बस्ती पर डाली। “सोचती हूँ, हमें ज़िन्दा रहने का हक़ नहीं है क्या?” 

“इतनी छोटी और इतना बड़ा क्यों सोचती हो? देखती नहीं हो, जी रहे हैं?” 

“मज़ाक में मत उड़ाओ रेशमा!” चम्पा ने गंभीर आवाज़ में कहा। उसने बुझी हुई बीड़ी का टुकड़ा फेंक दिया। 

“इतनी ज़िल्लत की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं, फिर भी मुर्दार सुख से सोने नहीं देते-आखिर क्यों?” 

“क्योंकि हम ज़ुल्म सहने के आदी हो गए हैं। हममें ज़ोर और ज़बरदस्ती का मुक़ाबिला करने की हिम्मत नहीं है, हम ईंट का जवाब पत्थर से नहीं दे पाते।” 

“सच कह रही हो रेशमा! उस दिन जो तूने जुर्रत दिखाई, उसने थानेदार और कर्मचारियों के हौसले पस्त कर दिये। तेरी गर्जना और ललकार ने औरों में भी हिम्मत पैदा की और सब निकल बाहर आकर खड़े हुए। नहीं तो आज यहाँ झोपड़ियों के बजाय मैदान दिखाई देता होता।” 

रेशमा की नज़र झोपड़ियों से थिरकती, रास्ते तक पहुँची। यह अहसास कि उनकी ये झुग्गियाँ, पुरानी अटारियाँ, भरभरा कर ज़मीन पर धरी रह जाएँगी। चारों तरफ़ रह जाएँगे सिर्फ़ और सिर्फ़ लकड़ों के, पुट्ठों के, घास के, गूनियों के और मिट्टी के ढेर। औरतें और बच्चे, जवान और बूढ़े, अपने टूटे-फूटे सामान के पास, कड़ी धूप में पड़े दिखाई देंगे। किसी शजर की छाँव में, कुछ गोबर के थेपले सुलगते नज़र आएँगे। आधे नंगे बच्चे इन सब हक़ीक़तों से अनजान, अपने ही फूटे हुए नसीब के ढेरों पर खेलते और दौड़ते रहेंगे और एक ठंडी आह उसकी साँसों ने बाहर छोड़ी। 

“एक बात कहूँ चम्पा, दिल में न करना!” 

“बोलो, दीदी!” 

“यह जिस्म का सौदा छोड़कर, इज़्ज़त और आबरू की ज़िन्दगी गुज़ारने की कोशिश क्यों नहीं करती?” 

चम्पा भड़क उठी! 

“इज़्ज़त, किसकी इज़्ज़त? कौन-सी इज़्ज़त, कौन-सी आबरू? यह इज़्ज़त तो उन ऊँची इमारतों में रहने वालों की पूँजी है, हम फुटपाथ पर जन्म लेने वालों और झोपड़ियों में पलने वालों के पास ऐसी अनमोल वस्तु है कहाँ? हममें इस इज़्ज़त जैसी चीज़ की हिफ़ाज़त करने के लिये ताक़त कहाँ है, हौसला कहाँ है?” 

“तुम भूल रही हो चम्पा! हर नारी की शोभा और शृंगार उसकी इज़्ज़त और अस्मत है, फिर चाहे वह औरत ग़रीब हो चाहे धनवान।”  

“ये सब कहने की बाते हैं दीदी! जैसे आँख खुलती है तो ख़ुद को फुटपाथ पर पाते हैं, फटे-पुराने कपड़ों से नंगे शरीर को ढकते, भूखे पेट के साथ पलकर बड़े होते हैं, अभी जवानी में हम क़दम रखते ही नहीं है, तो कामी कुत्तों और हवस के भूखे दरिंदों की शिकार होती हैं। कहो रेशमा इस पापी पेट के बारे में सोचें या इज़्ज़त की रक्षा करें?” 

“क्या मैं ये सब नहीं जानती? नारी बराबर नाज़ुक और अबला है। पर उसमें शेरनी की ताक़त भी छुपी हुई है चम्पा।” 

“काश सब तुम जैसी शेरनियाँ पैदा हों!” 

“भरोसा रखो, तुम भी वही हो सकती हो, चम्पा!” 

“ये सब फ़ुज़ूल की बातें हैं,” और वह उठ खड़ी हुई, बीड़ी सुलगाई, धुआँ हवा में छोड़ते हुए कहा, “भला क्या रखा है इस शरीर में। अगर रात को गंदा-मैला होता है तो सुबह उसे साफ़ करेंगे, क्या गुनाह है? पाप क्या जिस्म को चिपक जाता है?” और चम्पा हँसने लगी। 

“पूरी नारी जाति बदनाम होती है चम्पा!” 

“वैसे तो यह पूरी बस्ती बदनाम है, जो कुछ हम करते हैं वो गुनाह है, पाप है, पर अगर यही काम वह अटारियों वाले करें तो यह उनका मन बहलाव कहलाता है। यह इज़्ज़त और शान उनकी धरोहर है, हमारे वरसे में सिर्फ़ बदनामी हैं।” 

“तू समझ नहीं पाएगी चम्पा!” 

“और मैं समझना भी नहीं चाहती!” 

और वह हँसने लगी थी-थोड़ा दूर जाकर लौट आती है। 

“एक बात तुमसे कहना भूल गई।” 

“बोलो, क्या है?” 

“तुम्हारे पास जो नारी जाति की दौलत है उस पर कितने ही हवसी शिकारियों की नज़र है। तुम्हारी दौलत लूटने के लिये षड़यंत्र रचा जा रहा है और कालू भी उसमें शरीक है, ज़रा सावधान रहना!” 

रेशमा की भौहें तन गईं, हाथों की उँगलियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद मुट्ठी में बँधती गईं। उस वक़्त कुत्ते की गुर्राहट की ज़ोरदार आवाज़ आई। सामने रास्ते पर से तेज़ रफ़्तार में जाने वाली कार ने कुत्ते को कुचल डाला। उसकी कराहती चीख फ़ज़ा में फैलकर जल्द ही सर्द हो गई। 
    

आज बस्ती में ज़िन्दगी लौट आई है। आज की शाम की रंगीनी कुछ और भी ज़्यादा है। कारण साफ़ है। कालू के तीन साथियों-गंगू, काशीनाथ और अहमद को पुलिस की ज़मानत पर आज़ाद किया गया है। यह जश्न उसी ख़ुशी में है। कुछ दिनों से बस्ती में जो मायूसी और उदासी छाई हुई है वह अचानक ख़ुशी में बदल गई है। कालू और उसके तीनों साथी बस्ती के सिरमौर हैं। इनकी मौजूदगी में किसी ग़ैर को बस्ती में पाँव धरने की हिम्मत नहीं होती। सरकारी दफ़्तर में उनका नाम दर्ज है। जेल भेजे जाने की धमकी उन पर कोई असर नहीं करती। वे उनसे बख़ूबी वाक़िफ है। 

उनके लौटने से उनके धंधे में काफ़ी इज़ाफ़ा आ गया है। बस्ती की झोपड़ियों के पीछे अँधेरे में अनेक सरगर्मियाँ जारी हैं। सामने रास्ते पर मोटर और गाड़ियों का रुकना बढ़ गया है। रास्ते की बत्तियों से कुछ दूर वे रुकती हैं। धीमी आवाज़ में कुछ फुसफुसाहट होती है, कुछ लेन-देन होती है और गाड़ी फिर स्टार्ट होकर, रास्ते पर जाती दलदल में ग़ायब हो जाती है। 
धीरे-धीरे रात की शान बढ़ती है। ट्रैफिक का ज़ोर कम होता है। महफ़िल का दौर बस्ती की एक तरफ़ पूरे ज़ोर पर है। मन बहलाव के हर रंग से महफ़िल गर्म है। बस्ती के पीछे बँगलों की बत्तियाँ धीरे-धीरे बुझने लगीं। अंधकार गहरा था। महफ़िल के शोर के सिवा बस्तियाँ ख़ामोशी के आलम में थीं। 

रेशमा अपनी झोपड़ी में है, जिसका दरवाज़ा बंद है। अंदर से हल्की रोशनी का प्रकाश झोपड़ी के सुराखों से बाहर झाँक रहा है। 

अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। रेशमा दरवाज़ा खोलती है, दरवाज़े पर खड़े शख़्स को देखकर वह चीखने को थी कि उस शख़्स ने फ़ुर्ती से उसका मुँह हाथ से बंद करते हुए, तेज़ी से दरवाज़ा बंद कर दिया। रेशमा ख़ुद को आज़ाद कराने के लिये छटपटाती है, पर उस पुरुष की मज़बूत गिरफ़्त से ख़ुद को आज़ाद कराने में असफल रही और वह जाल में फँसी मकड़ी की तरह तड़पती रही। पुरुष ने घसीट कर उसे कोने में पड़ी खाट पर डाला। झटके से उसकी चोली फाड़ी, लेकिन दूसरे ही पल उसकी चीख हवा में फैलती है। रेश्मा के मुँह पर रखा हाथ हट जाता है और उसमें से ख़ून रेला बनकर बह निकला। दूसरे हाथ से उसने एक ज़ोरदार थप्पड़ रेशमा के चेहरे पर दे मारा जिससे वह पलटी खाकर दूर जा गिरी। 

“साली हरामज़ादी!! आज तेरा ग़ुरूर चकनाचूर करके छोड़ूँगा, देखूँ कौन तुझे बचाता है?” और वह जल्दी से उसकी ओर बढ़ा। 

“ख़बरदार, अगर एक भी क़दम आगे बढ़ाया तो” और उसके हाथ में पकड़ा धारदार चाकू हलके प्रकाश में चमक उठा। हवा के झोंके की वजह जलता दीपक बुझ गया, झोपड़ी अँधेरे से नहा उठी, भीतर गालियों की बौछार जारी थी। झटकों की वजह से झोपड़ी हिल रही थी, डर से फड़क रही थी, एक ज़ोरदार भूकंप की तरह धरती काँपने लगी थी। एक तेज़ चीख झोपड़ी के झरोखों से निकलकर हवा में गूँजती हुई, महफ़िल की रौनक़ में समा गई। रंग में भंग पड़ जाते ही भीड़ झोंपड़ी की तरफ़ बढ़ती है। 

अचानक ज़ोर से दरवाज़ा खुलता है, वर्दी पहना हुआ शख़्स एक गट्ठर की तरह बाहर की ओर लुढ़क आता है और ढलान से नीचे की ओर लुढ़कता जाता है, उसके पीछे उसकी चप्पल उसपर गिरती है। खुले दरवाज़े के पास, रेश्मा एक हाथ में छुरी और दूसरे हाथ में जलती बत्ती पकड़े खड़ी है। खुले हुए बाल, फटे कपड़े, आँखों से आग बरसाती, जैसे साक्षात् काली माता खड़ी हुई हो। 

“बदमाश, साला हरामख़ोर, सूअर की औलाद! अगर फिर किसी औरत की तरफ़ आँख उठाकर देखा भी, तो इस बत्ती से मुँह का दूसरा बाजू भी जला दूँगी।” 

लोगों का शोर झोपड़ी की ओर बढ़ता आ रहा है। वह शख़्स तेज़ी से उठता है, जूता सँभालकर उठाता है और कराहता, लंगड़ाता हुआ भाग निकलता है। एक परछाई झोपड़ी के पीछे से निकलकर उसके पीछे ग़ायब हो जाती है। 

“थू! कुत्ते की औलाद!!” 

और ज़ोर से दरवाज़ा बंद हो जाता है। 

 

आनंद टहलरामाणी 

सिन्धी समाज के कथा साहित्य में, नॉवल और सशक्त कहानी के सृजनहार। कुछ एकांकियों के रचयिता, कहानी संग्रह पर सी.एछ.डी. की ओर से पुरस्कार। 25 साल तक निरंतर दो-माही सिंधी पत्रिका ‘संगीता’ के संपादक रहे। सिंधी समाज सेवी के रूप में प्रख्यात, अनेक संस्थाओं से सम्मानित। 

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