दरिया–ए–दिल

 
1212    1122    1212    22
 
वो मानते भी मुझे कैसे बेगुनाह अभी
जुटा सका हूँ कहाँ एक भी गवाह अभी
 
ये मेरी दुखती हुई रग पे किसने हाथ रखा
जो चोट दिल में दबी थी, उठी कराह अभी
 
मिली है दौलते-ईमां हमें विरासत में
हमारे पास ये दौलत है बेपनाह अभी
 
परिंदा आस का घायल है, उड़ नहीं सकता
फ़लक को छूती है उसकी, मगर निगाह अभी
 
अभी तो मिट्टी में मिट्टी को ढूँढ़ती है नज़र
न ढूँढ़ पाई है दौलत छिपी अथाह अभी
 
दरार आई है रिश्तों में इस क़दर ‘देवी’
मिली न ढूँढ़े कहीं भी हमें पनाह अभी

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