दरिया–ए–दिल

दरिया–ए–दिल  (रचनाकार - देवी नागरानी)

कुछ शेर

 

कुछ शेर
 
पाँव ढाँपें या ढकें सर, या ख़ुदा
है रिदा क़द से भी छोटी क्या करें?
 
है सख़्त आज़माइशों का दौर चल पड़ा
सजदे में सर झुकाइए बस कुछ न बोलिए
 
क्यों भड़क उठती हैं ईंटें आजकल यूँ
जब गले मिलता है मंदिर मस्जिदों से
 
दरिया-ए-दिल में उठ रहा रह रह के इक तुफ़ान
शब्दों की है कमी कहो कैसे करूँ बयान

 

—देवी नागरानी
 

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