दरिया–ए–दिल

 
2122    1122    1122    22 
 
हमने आँगन की दरारों को बिछड़ते देखा
घर की आधार शिलाओं को खिसकते देखा

पेड़ बरगद का जो आँगन में था, काटा उसे
फिर वहीं ईंट की दीवार को उठते देखा
 
ज़ख़्म खारों से मिले जो भी महक़ते देखे
अधखिली कच्ची सी कलियों को उजड़ते देखा
 
जिन निगाहों में कभी ख़ुद को बसाया हमने
उन निगाहों की तड़प को भी तड़पते देखा
 
जब भी बदले हैं ज़माने की हवा के तेवर
वक़्त के साथ मनाज़िर को बदलते देखा
 
जिन चराग़ों से मिला हमको उजाला हर शब
वक़्त की फूँक से गुल उनको भी होते देखा 
 
दहशतें रोज़ नक़ाबों में छुपी मिलती हैं
एक अनजान-सा डर दिल में पनपते देखा 

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