दरिया–ए–दिल

 

 2122    1212    22
 
अश्क आँखों से गर निकल जाते
मुस्कुराते जो तुम बहल जाते
 
हम तो बैठे थे आस में उसकी
वो बुलाते तो सर के बल जाते
 
दर-दरीचों की जागती क़िस्मत
काश कुछ रिश्ते उनमें पल जाते
 
हम न आते जो उनके धोखे में
यूँ न रंगीन ख़्वाब छल जाते
 
फँस भी जाते अगर गुनाहों में
उसकी रहमत से हम निकल जाते
 
शह के बदले में मात हो जाती
गर ग़लत चाल हम ये चल जाते
 
जाने क्यों दल बदल रहे हम तुम
अच्छा होता जो ख़ुद बदल जाते
 
ज़िन्दगी दे रही है मौक़ा फिर
काश इस बार हम सँभल जाते
 
आग ही आग बन ‘देवी’
तुम जो छूते तो हाथ जल जाते

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