दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    22
  
जूझा तब तब वो अपनी ख्वाइश से 
गुज़रा जब जब वो आज़माइश से 
 
रिश्तों की क़ैद में जो जकड़ा हो 
कैसे निकलेगा ऐसी  साज़िश से
 
रिस रहा दर्द गीली आँखें हैं 
कैसे मानें हो भीगे बारिश से
 
वर्ना वो नौकरी न हाथ आती
काम आसां हुआ सिफ़ारिश से
  
बस्तियाँ जब तमाम ख़ाक हुईं 
कितने बेघर हुए उस आतिश से

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