दरिया–ए–दिल


221 1221 1221 122 
 
फिर कौन सी ख़ुश्बू से मिरा महका चमन है
‘ज़ख़्मी मिरे गुलज़ार के हर फूल का तन है’
 
बेताबी है देखी, न मगर ऐसी है देखी
नादान शरारत ने सिखाया ये चलन है
 
कुछ कुछ तो समझ आया सबब आज ये मुझको
कहते हैं हुनर जिसको, ये आज का फ़न है
 
बरबस ही मेरी याद से गुज़रा वो ज़माना
कुछ बंद किताबों में दिखा सूखा सुमन है
 
सपनों ने मेरी आँखों में दम तोडा है जब से 
तब से है गया चैन मेरा, सिर्फ़ चुभन है
 
नासूर न बन जाये कहीं डर है उसीका 
कल ज़ख़्म उकेरा जो अब उसकी जलन है
 
दीवाना मुझे कहता था, दीवाना था वो ‘देवी’
‘दीवान’ लिखा नाम बिना उसकी लगन है

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