परम्पराएँ और हम 

01-02-2024

परम्पराएँ और हम 

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 246, फरवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

जीवन की किशोरावस्था में सपने कौन नहीं देखता? जो सपने न देखे वह किशोर ही कैसा! तो किशोरावस्था में मैंने भी कई सपने देखे, कभी स्वयं को डॉक्टर के रूप में देखती, कभी शिक्षिका के रूप में। परन्तु नियति को तो कुछ और ही स्वीकार्य था! सो प्रकृति द्वारा दिए गए सबसे प्रमुख उत्तरदायित्व को निभाती हुई, मैं एक गृहणी और दो संतानों की जननी बनी। हाँ, जीवन में एक निश्चय अवश्य किया था कि मैं जीवन में जो भी करूँगी में वह पूर्ण समर्पण, दायित्व और निष्ठा के साथ करूँगी। 

यदि आप गृहणी का कर्त्तव्य पूरी निष्ठा से निभा रही हों, तो आपको कई तरह के दायित्व निभाने पड़ते हैं जैसे कि—रसोइए का, सफ़ाई कर्मचारी का, डॉक्टर का, धोबी का और ये सभी कार्य जीवन लिए आवश्यक हैं। 

शिशुपालन के वर्षों में तो हर माँ को ही कुछ समय के लिए चिकित्सक भी बनना पड़ता है। तो जब मैं अपने शिशुओं को पाल रही थी, उस समय मुझे मालूम हुआ कि दो वर्ष की आयु तक शिशु को जितनी बार सर्दी-ज़ुकाम होता है, उनकी संख्या, बाक़ी के जीवन काल में होने वाले सर्दी ज़ुकाम से अधिक होती है!! 

सर्दी-ज़ुकाम-खाँसी मुख्यतः वायरस के द्वारा होती है और 200 से अधिक प्रकार के वायरस (विषाणु) वातावरण में होते हैं, जो सर्दी-ज़ुकाम पैदा कर सकते हैं। शिशु जब किसी भी वायरस की गिरफ़्त में आते हैं तो उन्हें ज़ुकाम हो जाता है और फिर जीवन भर उस वायरस से उन्हें ज़ुकाम नहीं होता क्योंकि उसकी प्रतिरोध क्षमता उनके शरीर में उत्पन्न हो जाती है। लेकिन अगली ज़ुकाम का रोग देने के लिए और दूसरे वायरस तो रहते ही हैं। जिन माँओं ने शिशु पाले हैं उन्हें अवश्य ही यह अनुभव होगा कि हर शिशु के जीवन में वह समय आता है जब माँ को लगता है कि उसका बच्चा तो रोज़ बीमार ही रह रहा है!! यह वही काल होता है जब बच्चे का शरीर नए-नए विषाणुओं से संक्रमित हो, उनकी प्रतिरोध क्षमता शरीर में उत्पन्न करता रहता है। इसलिए बाद की ज़िन्दगी में ज़ुकाम होने की आवृत्ति बहुत कम हो जाती है। 

यह वायरस हवा में होते हैं और मनुष्य की नाक और गले पर हवा के साथ जाकर आक्रमण करते हैं। दो-तीन दिन पूरा रोग विकसित होने में लग जाते हैं। 

आप लोगों में से अधिकांश को यह याद होगा ही कि करोना जैसा घातक वायरस भी सबसे पहले नाक और गले पर ही आक्रमण करता है। यदि वहाँ इनकी संख्या घातक स्तर तक न पहुँचे तो रोग से सुरक्षा हो सकती है। 

इस सत्य को जानने के बाद भारत में प्रचलित कुछ तथाकथित “रूढ़ियों” के बारे में मेरे विचार बदल गए। 

अपनी नानी के मुँह से और फिर माँ के मुँह से भी सुनती आई थी कि, “अरे बच्चा बहुत उदास लग रहा है, बेबात रो रहा है, चिड़चिड़ा रहा है। लगता है नज़र लग गई है। चलो इस पर ‘राई-नोन’ उआंछ दें!” ऐसा कहने के बाद वे मुट्ठी भर सूखा आटा, दो लाल मिर्च, थोड़ी सी राई और रोड़े वाला नमक लेकर बच्चों के सिर के चारों ओर घुमा कर दहकते अंगारे पर डाल देतीं और फिर बच्चों को धूनी दे देती। माँ-बच्चा तो क्या, कुछ देर के लिए घर में उपस्थित सभी लोग छींकने-खाँसने और खखार कर गला साफ़ करने लगते। उन दिनों तो यह सब कुछ एक अंधविश्वास लगता था परन्तु आज जब इसकी वैज्ञानिकता के बारे में सोचती हूँ तो समझ में आता है कि ऐसा करने से गले और नाक तक पहुँचे हुए विषाणु से मुक्ति मिल सकती थी। धूनी में डाली हुई प्रत्येक वस्तु का एक अलग महत्त्व होता है—राई जलकर जो धुआँ देती है उसमें तेल की कुछ मात्रा होती है, जो नाक और गले को चिकना करता है और त्वचा पर एक चिकनी परत बनता है जिससे विषाणु का प्रवेश रक्त के प्रवाह में ना हो सके। मिर्च से जो धुआँ उठता है वह नाक और गले में उत्तेजना पैदा करता है जिससे छींक और खाँसी आने लगती है, पानी अधिक बहने लगता है जिससे नाक तक पहुँचे विषाणु नाक के पानी के साथ बाहर निकल जाते हैं। नमक का धुआँ नाक और गले की सूजन को कम करता है और साँस लेना आसान हो जाता है, और गेहूँ का आटा धुएँ की मात्रा को बढ़ाता है, जिससे औषधीय गुण वाले पदार्थ नाक तक पहुँच सकें। धूनी देने के बाद या तो रोग होगा ही नहीं और यदि होगा भी तो बहुत हल्का-फुल्का। घरों में हवन करने की परंपरा भी शायद यही सोच कर आरंभ की गई होगी कि घर की हवा को वातावरण में रहने वाले विषाणुओं से मुक्त रखा जा सके। आप लोग आधुनिक समय में भी देखते ही होंगे कि जब मच्छरों का आतंक फैला हो, डेंगू-मलेरिया फैलने की आशंका हो तो सरकार की तरफ़ से धुएँ में औषधि मिलकर जगह-जगह छिड़काव (फ़्युमिगेशन) किये जाते हैं। 

किशोरावस्था यदि सपने देखने की उम्र होती है तो वयस्क आयु में हमसे यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि हम अपनी परंपराओं, और रूढ़ियों को जानें और उसके पीछे छिपे हुए विज्ञान को समझने का प्रयत्न करें। 

हर परंपरा को रूढ़ि मान कर उसे अस्वीकार देना उचित नहीं है। कुछ समय पहले के करोना काल में हम अनुभव कर चुके हैं कि अनेक भारतीय परंपराओं को वैज्ञानिक और स्वास्थ्यप्रद मान कर उन्हें फिर से अपनाने को कहा गया। हर बुद्धिमान वयस्क का कर्त्तव्य है कि परंपराओं को उपयोगिता और वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसें, वांछनीय को अपनाएँ और अवांछनीय का परित्याग करें। 

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