भोर का चाँद
सरोजिनी पाण्डेय
भोर के धुँधलाए-खुलते आकाश में,
मद्धिम-कुम्हलाता-सा गतयौवन चाँद!
दो-चार बची हुई, रात की रोशनियों को
चुपचाप मानो गिनता हुआ-सा चाँद!
करके रखवाली रात भर इस धरती की
‘नाइट की ड्यूटी’ से थका हुआ-सा चाँद,
करने को विश्राम माता की गोदी में,
घर जाने को तत्पर उतावला-सा चाँद
उजली गोरी चाँदनी जो रात भर थी साथ,
उसके चले जाने से अनमना हुआ-सा चाँद!
देने को कार्यभार धरती का सूरज को,
सूरज की बाट जोहता हुआ सा-चाँद!
देख कर के सूरज को उसकी किरणों के संग
अपने एकाकीपन से रुआँसा हुआ चाँद!!
उषा की बेला में, पश्चिमी नभ-मंडल में
उदास, अकेला, निस्तेज, बोझिल-सा चाँद!
मेरी बालकनी से दिखती सूरज की नई प्रभा
जिसकी प्रखरता से हारता हुआ-सा चाँद!
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