अभागी रानी का बदला

15-04-2024

अभागी रानी का बदला

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मूल कहानी: ल् पलाज़ा डेला रेज़िना बनाटा; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (पैलेस ऑफ़ द डूम्ड क्वीन); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स; 
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

प्रिय पाठक,

इस अंक में जो लोक कथा ले कर उपस्थित हुई हूँ, उसकी एक विशेषता तो यह है कि प्रत्यक्ष में कोई पुरुष पात्र नहीं है, जो है वह खलनायक है। दूसरे—इस कथा में स्त्री ही स्त्री की सहायता कर रही है। इस लोक कथा में आपको, किसी काल में भारत में प्रचलित, सती प्रथा का प्रभाव भी दिखलाई पड़ सकता है। मेरा अनुमान सत्य के कितना निकट है यह तो कहना कठिन है। यदि कुछ पाठकों के विचार इस विषय पर आए तो उनका स्वागत रहेगा . . . इस कथा में मनुष्य की नकारात्मक वृत्ति की विजय दिखाई गई है, प्रतिशोध मानव की सहज प्रकृति है और इस लोक कथा में उसे न्यून करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है, सहज मानव वृत्ति का रेखांकन कथा के रूप में है, आनंद लीजिएः

बहुत समय पहले की बात है एक बुढ़िया कातनहारी थी जो रूई, ऊन, सनई आदि को कातकर सूत बनाती थी और उसी से अपना गुज़ारा करती थी। उसकी तीन बेटियाँ थीं, वे भी सूत कातने का ही काम करती थीं। कताई करने से उनका किसी तरह गुज़ारा तो हो जाता था, पर बचत एक कौड़ी की भी नहीं हो पाती थी। अचानक बुढ़िया माँ बीमार पड़ी, इलाज के तो पैसे थे नहीं। तीन दिन के तेज़ बुख़ार से बेचारी को मौत सामने दिखाई पड़ने लगी। उसने अपनी उदास, दुखी तीनों बेटियों को अपने पास बुलाया और बोली, “इस दुनिया में कोई हमेशा तो नहीं रहता, मैं लंबी ज़िन्दगी जी चुकी हूँ, और अब मेरा अंत समय आ गया है। लेकिन मेरा दिल इसलिए फट रहा है कि तुम्हें इस ग़रीबी में छोड़े जा रही हूँ। तसल्ली यह भी है कि तुम तीनों कताई का काम जानती हो और अपना गुज़ारा कर लोगी। मैं ऊपर जाकर, ऊपर वाले से विनती करूँगी कि वह तुम पर कृपा करें। मेरे पास और कोई धन-सम्पत्ति तो है नहीं बस कती हुई सनई के तीन गोले हैं, वही पूँजी तुम्हारे लिए छोड़े जा रही हूँ।” इसके कुछ ही समय बाद बूढ़ी माँ ने आख़िरी साँस ले ली। 

कुछ ही दिनों बाद ईस्टर का बड़ा त्योहार आने वाला था। बहनें आपस में बात करने लगीं, “आने वाला इतवार ईस्टर का है। हमारे पास त्योहार का खाना खाने लायक़ कुछ नहीं है। लगता है ईस्टर फीका ही चला जाएगा!” 

माया जो सबसे बड़ी थी, उसने सुझाया, “मैं अपने हिस्से का, माँ का दिया हुआ, सनई के सूत का गोला बेच दूँगी। मिले हुए पैसे से हम त्योहार मना लेंगे।”

अगले दिन माया अपने हिस्से की सनई के सूत का गोला लेकर बाज़ार गई। सूत बहुत अच्छा था, दाम अच्छे मिले। उसने कुछ मटन और मदिरा की एक बोतल ख़रीदी और घर की ओर चल पड़ी। अभी वह बाज़ार से निकली ही थी कि पीछे से एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया, गोश्त का थैला उसके हाथ से खींचा, मदिरा की बोतल गिरा कर तोड़ दी और थैला लेकर भाग गया। माया बेचारी इस अचानक हमले से अधमरी-सी हो गई। किसी तरह हाँफते-काँपते घर आकर उसने यह क़िस्सा अपनी बहनों को सुनाया। तीनों बहनों को घर में बासी बचा खाना खाकर ही काम चलाना पड़ा। 

अगले दिन मँझली बहन रत्ना ने कहा, “आज मैं बाज़ार जाऊँगी और अपने हिस्से का सूत का गोला बेच दूँगी। देखना है कि आज वह कुत्ता मुझे भी सताने आता है या नहीं!”

वह बाज़ार गई, सूत का गोला बेचा और चिकन, रोटी और मदिरा की एक बोतल ख़रीद ली। वह माया से अलग, दूसरे रास्ते से घर की ओर लौटने लगी। लेकिन यह क्या! एक कुत्ता फिर आया, रोटी और चिकन का थैला छीन, मदिरा की बोतल गिरा कर भागने लगा। रत्ना माया से अधिक साहसी थी। वह कुछ दूर तक कुत्ते के पीछे दौड़ी, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। कुत्ता इतनी तेज़ी से भागा कि वह थक कर बैठ गई। घर आकर उसने सारा ब्योरा दोनों बहनों को सुना दिया। आज दूसरे दिन भी तीनों बहनों को बची-खुची चूनी-चोकर पर ही बिताना पड़ा। 

अब सबसे छोटी बहन नैना की बारी थी, “कल बाज़ार जाकर सूत बेचने की बारी मेरी है। देखना यह है कि क्या मेरे साथ भी वही सब होता है जो तुम दोनों के साथ हुआ।” अगली सुबह वह बहुत जल्दी ही बाज़ार के लिए निकल गई। उसने अपनी कती हुई सनी का गोला बाज़ार में बेचा और मिले धन से रसोई का बहुत सारा सामान ख़रीद लिया और एकदम नए रास्ते से घर की ओर चल पड़ी। अभी वह आराम से आगे बढ़ ही रही थी तभी न जाने कहाँ से शायद वही कुत्ता आया। सामान के थैले पर झपटा और उसे लेकर भाग चला। नैना भी उस पर झपटी और उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ी। आख़िरकार कुत्ता एक महल के भीतर जाकर ग़ायब हो गया और नैना भी उसका पीछा करती महल के भीतर तक पहुँच गई। वह मन ही मन बुदबुदा रही थी, “कोई यहाँ दिखाई दे तो उसे बताऊँ कि उनका कुत्ता तीन दिन से हमारा खाना लेकर भाग आ रहा है। उन्हें इसका हर्जाना देना चाहिए।”

वह कुछ देर इधर-उधर तलाश करने लगी कि कोई मिल जाए। इसी चक्कर में वह रसोई में जा पहुँची। वहाँ चूल्हे पर भोजन पक रहा था, एक तंदूर में मटन की टाँग भुन रही थी, एक पतीली में चिकन और तीसरे बरतन में अभी कुछ देर पहले ख़रीदा गया दलिया उबल रहा था। अब उसने एक अलमारी खोल कर देखी उसमें तो तीन रोटियों की ढेरियाँ भी दिख गईं। वह हैरान-सी होकर महल में घूमने लगी, उसे चिड़िया का पूत तक दिखाई ना दिया, हाँ तीन लोगों के बैठने लायक़ एक खाना खाने की मेज़ ज़रूर सजी थी। यह सब देखकर नैना ने सोचा—हो न हो हमारे ही सामान से, हम तीनों बहनों के लिए ही, खाना बन रहा है। अगर मेरी दोनों बहनें भी यहाँ होती तो मैं तो तुरंत खाना खाने बैठ जाती। 

तभी उसने सड़क पर जाती हुई एक गाड़ी की आवाज़ सुनी। खिड़की से झाँक कर देखा तो वह गाड़ीवान को पहचान गई। अब नैना ने गाड़ीवान को आवाज़ देकर रोका और उससे कहा कि वह उसकी बहनों को इस जगह भेज दे, वह यहाँ एक दावत में उनका इंतज़ार कर रही है। 

कुछ देर बाद जब उसकी दोनों बहनें आ गईं, तब नैना ने उन्हें सारा घटनाक्रम सिलसिलेवार सुना दिया, फिर बोली, “चलो हम खाना खाते हैं। अगर घर वाले आ गए तो हम उनको बता देंगे कि यह सारा भोजन तो हमारी ही सामग्री से बना है, इसलिए हम खा रहे हैं!”

दोनों बड़ी बहनें माया और रत्ना पहले तो झिझकीं क्योंकि वे नैना जितनी हिम्मती और बहादुर नहीं थीं। लेकिन वह दोनों भी अब तक भूख से व्याकुल हो चुकी थीं सो खाना खाने बैठ गईं। 

जब अँधेरा छाने लगा तब उन्होंने देखा कि खिड़कियाँ अपने आप बंद हो गईं और घर के चिराग़ भी जल उठे। अभी वे इस बात पर अचरज कर ही रही थीं कि उनके सामने भोजन से सजी थालियाँ आ गईं। राजसी भोजन देखकर नैना बहादुरी से बोल उठी, “जो लोग हमारी सेवा कर रहे हैं हम उनका धन्यवाद करते हैं, भोजन कराने वालों का आभार मानते हैं। आओ बहनों अब खाना खाते हैं।”

इतना कहकर उसने एक थाली अपनी ओर खिसका ली और खाना शुरू कर दिया। दोनों बड़ी बहनें डर से अधमरी हो रही थीं, उनसे खाना निगला ही नहीं जा रहा था। बस वे चारों ओर निगाहें दौड़ा रही थीं कि कहीं से कोई भूत या डायन न निकल आए लेकिन नैना आनंद से खा रही थी। उसने अपनी बहनों को समझाने की कोशिश भी कि अगर कोई हमें खाना न खाने देना चाहता तो खाना बनता ही क्यों? और मेज़ पर सजता ही क्यों? और भला चिराग़ भी क्यों जलते? यहाँ और तो कोई है ही नहीं। 

जब पेटभर खा लिया तो उन्हें नींद आने लगी। नैना पूरे घर में तब तक घूमती रही जब तक उसे ऊपर के एक सोने के कमरे में लगे बिस्तर दिखाई नहीं पड़े। वहाँ साफ़-सुथरे तीन बिस्तर देखकर नैना बोली, “बहनो! चलो अब सो जाते हैं।”

“नहीं!!” दोनों बड़ी बहनें भयभीत स्वर में बोलीं, “हम घर जाएँगे, यहाँ हमें डर लगता है।”

“डरपोक कहीं की, यहाँ कितना तो मजा आ रहा है और तुम जाना चाहती हो। मैं तो सोने जा रही हूँ। जिसे जाना हो जाए!” 

जैसे ही नैना सोने की तैयारी करने लगी कि सीढ़ियों के नीचे से आती आवाज़ उसे सुनाई दी, “नैना आओ, मुझे राह दिखाओ, मेरा बेड़ा पार लगाओ!”

दोनों बहने सकते में आ गईं,  “हे भगवान, यह क्या हो रहा है! नैना! कहीं मत जाना।” 

“मैं तो जाऊँगी,” नैना ने एक चिराग़ अपने हाथ में उठाया और सीढ़ियों से नीचे आ गई। अब उसने अपने को एक बड़े कमरे में पाया, जहाँ एक रानी जैसी लगने वाली स्त्री ज़ंजीरों में जकड़ी हुई थी। उसके मुँह, नाक, कान से लपटें निकल रही थीं, “सुनो नैना,” उस स्त्री ने आग की लपटों के बीच से कहा, “क्या तुम ख़ज़ाना पाना चाहती हो?” 

“हाँ!” नैना झट से बोल उठी। 

“तब तुम्हारी बहनों को भी इस काम में तुम्हारी मदद करनी होगी! अकेले तुमसे यह काम नहीं हो पाएगा।”

“मैं उनसे मदद ज़रूर लूँगी!”

“तुम्हें कई ख़तरनाक काम करने होंगे! अगर ऐसा करते समय तुम तनिक भी डर गईं तो तुम सब की मौत पक्की है।”

“मैं समझ गई, मैं उन्हें किसी तरह मना लूँगी!” नैना विश्वास पूर्ण स्वर में बोली। 

“तब ठीक है। अब ध्यान से सुनो, वह उधर तीन बक्से एक क़तार में देख रही हो न, वे राजसी कपड़ों, गहनों से भरे हैं। मैं किसी समय चंद्र नगर की रानी थी। वे सब मेरी ही चीज़ हैं। मैं इस नगर के युवा राजा से प्रेम कर बैठी और उसके प्रेम में पागल हो गई। लेकिन वह दुष्ट और धोखेबाज़ निकाला। उसी के कारण आज मैं नर्क की ज्वाला में जल रही हूँ। मुझे इस आग में झोंक कर अब वह दूसरी स्त्री से शादी करना चाहता है। लेकिन मैं उसे अपने साथ ही नर्क की आग में जलते देखना चाहती हूँ। उसे भी अपने कर्मों का फल मिलना चाहिए तभी सच्चा न्याय होगा। कल तुम मेरे बक्सों से निकाल कर गहने, कपड़े पहनना, राजसी शृंगार करना फिर एक गीतों की किताब लेकर बारजे पर चली जाना और वहाँ झुक कर उसे पढ़ना . . . दिन में कभी न कभी तो वह दिलफेंक आशिक़ उधर से निकलेगा ही! और तुम्हारे जैसी सुंदर युवती को देखकर तुमसे मिलना भी चाहेगा। तुम हामी भर कर उसे भीतर बुला लेना। उसके साथ बैठकर शरबत पीने का प्रस्ताव रखना, वह इसे भी ज़रूर मान लेगा। शरबत पीते समय तुम चुपके से उसके प्याले में ज़हर मिला देना, जो तुम्हें गहनों के बक्से में रखी डिबिया से मिल जाएगा। ज़हर इतना तेज़ है कि कुछ ही समय बाद उसकी मौत हो जाएगी। अब तुम उसका मुरदा शरीर यहीं ले आना। वह बड़ा बक्सा खोलना और उसमें उसका शरीर बंद कर देना। फिर बक्से के चार कोनों पर चार मोमबत्तियाँ जला देना। 

“मैं बहुत धनवान रानी थी इस महल में बहुत धन है। उस सब पर तुम्हारा अधिकार हो जाएगा। जितना चाहो तुम ले सकती हो, सब तुम्हारा होगा।”

इतना सब कुछ कह कर वह स्त्री इस बड़े बक्से में ग़ायब हो गई। नैना ऊपर आई और माया और रत्ना को सारी कहानी सुनाई, बोली, “तुम दोनों क़सम खाओ कि मेरी मदद करोगी। अगर नहीं की तो भगवान तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेंगे। तुम दोनों को ईश्वर की शपथ है।” 

भयभीत होते हुए भी दोनों बहनों ने काँपते हुए मन से नैना की बात मान ली। 

अगले दिन नैना ने सुबह ही वे बक्से खोले, उसमें से गहने, कपड़े, शृंगार का सामान, ज़हर की डिबिया सभी कुछ निकला। तीनों बहनों ने सुंदर कपड़े, पहने सिंगार किया। 

ज़रा-सा दिन चढ़ते ही नैना एक किताब लेकर कोठे पर जा बैठी। थोड़े ही समय बाद घोड़े की टापों की आवाज़ सुनाई पड़ी। एक सजीला घुड़सवार राह पर जा रहा था। नैना पर नज़र पड़ी तो उसे देखकर वह रुक गया। नैना ने भी किताब से नज़रें उठाकर उसको देखा और सर झुका लिया। युवक का साहस बढ़ा। उसने पूछा, “सुंदरी क्या मैं आपसे दो बातें कर सकता हूँ?” 

“क्यों नहीं! भीतर आजाइए न!” नैना ने बेझिझक कह दिया। 

 युवा घोड़े से उतरा और महल में चला आया। 

“आइए साथ-साथ शरबत पीते हैं और बातें करते हैं!” नैना मीठे स्वर में बोली। 

अब नैना ने चंद्रपुर की रानी के कहे अनुसार ज़हर-बुझे प्याले में उसे शरबत परोस दिया। दो-तीन घूँट लेने के बाद ही युवक मौत की नींद में चला गया। नैना ने अपनी बहनों को शव नीचे ले चलने के लिए बुलाया। दोनों बहनों ने डर के मारे नैना का साथ देने को से इनकार कर दिया। लेकिन नैना ने बहादुरी से कहा, “अगर तुम मेरा साथ नहीं दोगी तो मैं तुम्हें भी मार दूँगी!”

अपनी जान बचाने के लिए वे नैना का साथ देने लगीं। नैना ने लाश का सर बालों से पकड़ा और बहनों ने दोनों टाँगें, वे उसे नीचे लाईं और बड़े बक्से के पास पटक कर भागने लगी। नैना ने फिर उन्हें धमकाया, “अगर बीच में छोड़कर गई तो मैं तुम दोनों की अच्छी ख़बर लूँगी!”

बहनें समझ गई की नैना की बात टालने का क्या फल मिलेगा। बड़ा बक्सा खोला गया, उसमें चंद्रपुर की रानी लपटों के सिंहासन पर बैठी थी, उसने युवक का हाथ पकड़ कर शव को अपनी गोदी में रख लिया, “पापी प्रेमी, आओ मेरे साथ! अब मुझे छोड़कर तुम कहीं नहीं जा सकते!”

रानी के चुप होते ही बक्सा भड़ाक से बंद हो गया और न जाने कहाँ ग़ायब हो गया। यह सब देखकर दोनों बड़ी बहनें माया और रत्ना बेहोश हो गईं। 

नैना ने उनके मुँह पर पानी छिड़का, गाल थपथपा कर उन्हें होश में लाई। 

तीनों बहनों ने महल में घूम-घूम कर बहुत सारा धन इकट्ठा किया और आनंद से उसी महल में रानियाँ की तरह रहने लगीं। समय आने पर तीनों ने विवाह किया। साहसी नैना ने अपनी और अपने साथ अपनी दोनों बहनों की भी ज़िन्दगी सँवार दी। 

1 टिप्पणियाँ

  • आपके अनुवाद बहुत सहज और पठनीय हैं। बहुत बधाई! इस कहानी में प्रतिशोध कहें या असत्य पर सत्य की विजय। हमारी लोककथाओं में भी धोखा करने वाले को धोखा देकर उसकी हानि करवा कर सही मार्ग पर लाने की कहानियाँ होती हैंजैसे बंदर और मगरमच्छ की कहानी। हाँ, विदेशी लोककथाओं में इस संदर्भ में हत्या तक जाने में कोई हिचक नहीं दिखाई देती। ये कहानियाँ लोक को सही मार्ग पर चलाने के उद्देश्य से ही लिखी जाती थीं अत: समाज और समय के अनुसार दंड विधान और नीति के उपयोग की बात दिखाई देगी। आपके अच्छे अनुवाद ऐसे ही चलते रहें...शुभेच्छा!

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